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________________ निर्वाण उपनिषद नहीं, अनुभव वगैरह से कुछ नहीं। जिसको संसार का अनुभव कहते हैं, वह मन का पोषण है सिर्फ । संन्यासी अमन की तरफ चलता। गृहस्थ मन की तरफ चलता । सभी लोग मन लेकर पैदा होते हैं, लेकिन धन्य हैं वे, जो मन के बिना मर जाते हैं। सभी लोग मन लेकर जन्मते हैं, लेकिन अभागे हैं वे, जो मन को लेकर ही मर जाते हैं। फिर जीवन में कोई फायदा न हुआ। फिर यह यात्रा बेकार गई। अगर मृत्यु के पहले मन खो जाए, तो मृत्यु समाधि बन जाती है। और अगर मृत्यु के पहले मन खो जाए, तो मृत्यु के बाद फिर दूसरा जन्म नहीं होता, क्योंकि जन्म के लिए मन जरूरी है। मन ही जन्मता है। मन ही अपूर्ण वासनाओं के कारण, जो वासनाएं पूरी नहीं हो सकीं, उनके लिए पुनः-पुनः जन्म की आकांक्षा करवाता है। जब मन ही नहीं रहता, तो जन्म नहीं रहता । मृत्यु पूर्ण हो जाती है। हम सब भी मरते हैं, हम अधूरे मरते हैं, क्योंकि वहां जन्म की आकांक्षा भीतर जीती चली जाती है। वह जन्म की वासना फिर नया शरीर ग्रहण कर लेती है। संन्यासी जब मरता है, तो पूरा मरता है - टोटल डेथ । शरीर ही नहीं मरता, मन भी मरता है। भीतर कोई और जीने की वासना नहीं रह जाती है। और जो पूरा मर जाता है, वह उस जीवन को उपलब्ध हो जाता है, जिसका फिर कोई अंत नहीं। लेकिन मार्ग क्या है ? मार्ग है अ-मन, नो-माइंड । धीरे-धीरे मन को गलाना, छुड़ाना, हटाना, मिटाना है। ऐसा कर लेना है कि भीतर चेतना तो रहे, मन न रह जाए। चेतना और बात है। चेतना हमारा स्वभाव है। मन हमारा संग्रह है। इसलिए दुनिया जितनी सुशिक्षित और सभ्य होती जाती है, ध्यान उतना ही मुश्किल होता चला जाता है। क्योंकि सुशिक्षा और सभ्यता का मतलब क्या है? एक ही मतलब है कि ट्रेनिंग आफ द माइंड । मन और ट्रेण्ड हो जाता है। इसलिए जितना सुशिक्षित और जितना सभ्य होता जाता है मनुष्य, उतना ही मन से छूटना मुश्किल होता जाता है, क्योंकि मन का इतना प्रशिक्षण हो जाता है। हमारी सारी शिक्षा, हमारी सारी व्यवस्था, हमारा सारा अनुशासन मन की तैयारी है मजबूती के लिए। कि बाजार में मन सफल हो सके, कि धंधे में मन सफल हो सके, कि संघर्ष में, प्रतियोगिता में, प्रतिस्पर्धा में मन सफल हो सके, तो उसको हम ट्रेण्ड कर रहे हैं। और ऋषि तो उलटी बात कहते हैं। वे कहते हैं, मन को विसर्जित करना है, डिसपर्स द माइंड । यह ठीक है। अगर संसार में गति करनी हो, तो मन प्रशिक्षित होना चाहिए। अगर परमात्मा में गति करनी हो, तो मन विसर्जित होना चाहिए। अगर पदार्थ को पाने जाना हो, तो बहुत सुशिक्षित मन चाहिए। सुआयोजित, सुसंगठित, वेल आर्गनाइज्ड मन चाहिए। लेकिन अगर परमात्मा में जाना हो, तो मन चाहिए ही नहीं - शिक्षित-अशिक्षित कोई भी नहीं, संगठित असंगठित कोई भी नहीं - मन चाहिए ही नहीं। अ-मन उनकी गति है। वे निरंतर इस चेष्टा में ही लगे रहते हैं कि मन कैसे कम होता चला जाए। बढ़ता कैसे है मन? बढ़ने का ढंग क्या है मन का ? उसे समझ लें, तो घटने का ढंग खयाल में आ जाए। बढ़ता कैसे है मन ? मन को हम सहारा देते हैं, पहली बात । वी कोआपरेट विद इट । रास्ते से गुजर रहे हैं, भूख बिलकुल 190
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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