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________________ निर्वाण उपनिषद छिपा हुआ दिखाई पड़ गया, अपने भीतर का, उसे सबके भीतर का दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। क्योंकि हम दूसरे के भीतर वहीं तक देख सकते हैं, जहां तक अपने भीतर देख सकते हैं। हम दूसरे के भीतर उससे ज्यादा गहरा कभी नहीं देख सकते, जितनी गहराई में हमने अपने भीतर झांका है। चूंकि हम अपने को शरीर ही मालूम पड़ते हैं, दूसरा भी शरीर ही दिखाई पड़ता है। जो हम अपने को जानते हैं, वही हम दूसरे में देख भी पाते हैं। जिस दिन हम अपने भीतर परमात्मा को देख लेते हैं, उस दिन इस जगत में कोई कण परमात्मा से खाली नहीं रह जाता। वह सबकी आंतरिकता में दिखाई पड़ जाता है। लेकिन भीतर प्रकाश चाहिए । उस प्रकाश की आकांक्षा, अभीप्सा, उसकी ही पुकार, उसकी ही उनकी नित-नूतन चेष्टा है। वे थकते नहीं - अथक । ऐसा कोई दिन नहीं आता कि वे निराश हो जाएं और कहें कि बस, हो गया बहुत । अब तक नहीं हुआ, तो आगे क्या होगा? नहीं, वे थकते नहीं। प्यास, सूफी फकीर हसन जब मरा तो उसके मित्रों ने, उसके शिष्यों ने पूछा कि हसन, तुमने कभी बताया नहीं तुम्हारा गुरु कौन था । और जानने का मन होता है कि तुम इतने आलोकित, तुम्हारा गुरु कौन था ? हसन ने कहा, नहीं बताने का कारण यह नहीं है कि गुरु को छिपाना चाहता हूं। नहीं बताने का कारण है कि इतने गुरु थे कि बताना मुश्किल है। और ऐसे-ऐसे गुरु थे कि बताने में थोड़ी दुविधा भी होती है। तो उन्होंने कहा कि पहली बात तो समझ में आई, दूसरी समझ में नहीं आती। बहुत गुरु हों तो बताना मुश्किल मालूम पड़ता है, किस-किस का नाम लें! लेकिन यह दूसरी बात समझ में नहीं आती कि बताने में थोड़ी दुविधा भी होती है। हसन ने कहा, होती है। अब जैसे उदाहरण के लिए - एक गांव में आधी रात पहुंचा। भटक गया रास्ता । सारा गांव सो गया था। सराय का दरवाजा खटखटाया, कोई उठा नहीं। कहां ठहरूं ! एक मकान के पास से गुजरता था। एक चोर दीवार में सेंध लगाता था । वही अकेला जागा हुआ आदमी था। उससे मैंने कहा कि भाई, बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। ठहरने की कोई जगह है? उसने कहा, जरूर ठहरा दूंगा। फकीर मालूम पड़ते हो। मेरे घर ठहरने की हिम्मत हो, तो मेरे घर ही ठहर जाओ। मैं एक चोर हूं। लेकिन, हसन ने कहा, इतना ईमानदार आदमी मुझे इससे पहले नहीं मिला था, जिसने कहा, मैं एक चोर हूं। हसन ने कहा कि मेरा मन भी डरा कि ठहरूं इसके घर कि नहीं, क्योंकि कल सुबह गांव के लोग क्या कहेंगे! मगर जब चोर ने आमंत्रण इतने प्रेम से दिया है और कहकर दिया कि मैं चोर हूं, तो इंकार करते नहीं बना। चोर के घर जाकर ठहर गया। चोर ने कहा, तुम विश्राम करो। मैं भोर होते-होते . आ जाऊंगा और तुम्हारी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा । कोई पांच बजे चोर आया, हसन ने दरवाजा खोला। हसन ने पूछा, कुछ पाया ? चोर ने कहा, आज तो नहीं। लेकिन जिंदगी लंबी है और रातों की क्या कमी है। हसन ने कहा है कि मैं महीनेभर उस चोर घर था । और रोज चोर आता और मैं पूछता, कुछ मिला ? वह कहता, नहीं। लेकिन कल मिलेगा। जिंदगी लंबी है और रातों की क्या कमी है। महीनेभर बाद जिस दिन हसन ने उसका घर छोड़ा, उस दिन यही बात थी, उस दिन भी कुछ नहीं मिला था । और हसन ने कहा कि जब मैं परमात्मा को खोजता था, तो बार-बार थक जाता था । और सोचता था, अब तक नहीं मिला - वह चोर मेरे सामने खड़ा हो जाता और वह कहता, रातों की क्या कमी है, 188
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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