SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनंद और आलोक की अभीप्सा, उन्मनी गति और परमात्म-आलंबन हिसाब-किताब होती है। __ संन्यासी कुछ जोड़ता नहीं, वह परमात्मा से यह नहीं कहता कि पंद्रह दिन हो गए प्रार्थना करते, अब कहां हो? नित-नूतन चेष्टा करता रहता है। कल की बात ही छोड़ देता है। कल का कोई सवाल नहीं है, यह क्षण काफी है। और सवाल यह नहीं है कि ध्यान से कुछ मिले, ध्यान ही काफी है। यह भी सवाल नहीं है कि कोई फल मिले, ध्यान ही फल है। इसलिए वह रोज नई-नई चेष्टा करता चला जाता है। उसकी चेष्टा कभी पुरानी नहीं पड़ती। वह जन्मों-जन्मों तक प्रतीक्षा करता है, चेष्टा करता है। कभी यह नहीं कहता कि कितना मैं कर चुका, अभी तक दर्शन नहीं, अन्याय हो रहा है। इतने उपवास किए, इतने ध्यान किए, इतनी प्रार्थनाएं हो चुकीं, अभी तक, अभी तक कुछ फल नहीं मिला। नहीं, जिसने ऐसा सोचा, वह गृहस्थ है, वह संन्यासी नहीं है। वह हिसाब-किताब रख रहा है। वही दुकान का हिसाब है। वही खाता-बही है। वह बैलेंस कर रहा है कि इतना नुकसान, इतना लाभ। इतना दिया, इतना लिया। वह लगा है हिसाब-किताब में। नहीं, संन्यासी सब हिसाब-किताब छोड़कर जीता है। कोई हिसाब-किताब नहीं है। और अगर किसी दिन परमात्मा उसे मिले, तो वह कहेगा, कैसे मिल गए तुम, मैंने कुछ भी तो नहीं किया! . इसीलिए जिन्होंने परमात्मा को जाना, उन्होंने कहा, वह प्रसाद रूप मिलता है-जस्ट ऐज़ ए ग्रेस। • हमारे करने का उससे कोई संबंध नहीं है। हमने जो किया, उससे कुछ संबंध नहीं बनता। वह तो उसकी अनुकंपा है, इसलिए मिलता है। वह उसकी दया है, करुणा है, इसलिए मिलता है। हमारे किए हुए का क्या मूल्य ? लेकिन यह वही कह सकता है, जिसने हिसाब न रखा हो, नहीं तो किए हुए का मूल्य मालूम पड़ता है। - प्रकाश के लिए है उनकी चेष्टा। एक ऐसी अवस्था के लिए, जहां कोई अंधकार न हो। क्योंकि अंधकार के कारण ही तो सारा भटकाव है। अंधकार के कारण ही तो हमें टटोलकर जीना पड़ता है। और अंधकार के कारण ही तो कुछ पता नहीं चलता कि हम कहां खड़े हैं, क्यों खड़े हैं; कहां जा रहे हैं, कहां से आ रहे हैं। अंधकार के कारण ही तो जीवन के सारे विकार हैं। अंधकार के कारण ही तो सारी उलझन और सारा उपद्रव है, सारा रोग और सारी विक्षिप्तता है। प्रकाश का अर्थ है, एक ऐसी चित्त की दशा जहां सब साफ है-क्रिस्टल क्लियर-सब दिखाई पड़ता है। जैसा है, वैसा दिखाई पड़ता है। सब स्वच्छ, निर्मल है, आलोकित है। कहां जा रहे हैं, दिखाई पड़ता है; कहां से आ रहे हैं, दिखाई पड़ता है; कहां खड़े हैं, दिखाई पड़ता है; कौन हैं, दिखाई पड़ता है; क्या है चारों तरफ, दिखाई पड़ता है। प्रकाश की आकांक्षा मूलतः सत्य के दर्शन की आकांक्षा है। क्योंकि दर्शन प्रकाश के बिना नहीं हो सकेगा। बाहर प्रकाश होता है, तो चीजें दिखाई पड़ती हैं; और जब भीतर प्रकाश होता है, तो परमात्मा दिखाई पड़ता है। बाहर अंधेरा हो जाता है, तो पदार्थ नहीं दिखाई पड़ता; भीतर अंधेरा छा जाता है, तो परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। तो प्रकाश की आकांक्षा, भीतर जो छिपा है, उसके दर्शन की आकांक्षा है। और जिसे भीतर का 187 7
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy