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________________ आनंद और आलोक की अभीप्सा, उन्मनी गति और परमात्म- आलंबन नहीं, लेकिन ध्यान असाधन है— नो - मेथड | ध्यान कोई साधन नहीं है, कोई विधि नहीं है वस्तुतः । ध्यान सब विधियों को छोड़कर अपने भीतर डूब जाने का नाम है। इसलिए जब तक विधि चलती है, तब तक ध्यान नहीं होता। विधि सिर्फ जंपिंग बोर्ड है। एक आदमी नदी में कूदता है, तख्ते पर खड़ा है, उछल रहा है। अभी नदी नहीं आ गई, अभी जंपिंग बोर्ड पर है। फिर जंपिंग बोर्ड ने उसे फेंक दिया, छलांग मारी, वह नदी में चला गया। लेकिन एक मजे की बात है कि जंपिंग बोर्ड नदी में छलांग लगाने के लिए सहयोगी बनता है। लेकिन अगर जंपिंग बोर्ड पर ही कूदते रहें, तो जिंदगी नहीं, अनंत जिंदगी कूदते रहें, नदी में न पहुंचेंगे। मेथड कैन बी यूज्ड ओनली टु जंप इनटु द नो-मेथड । विधि का उपयोग करना पड़ता है, अ-विधि में कूदने के लिए। इसलिए हम जो ध्यान करते हैं, उसमें जो तीन चरण हैं, वे सिर्फ जंपिंग बोर्ड हैं। चौथा चरण ध्यान है । तीन तो सिर्फ तैयारी है उछलने की, कूदने की, इतने जोश से भर जाने की कि कूद ही जाएं हिम्मत जुटाकर, तो पानी में पहुंच जाएं। जहां ध्यान है, वहां कोई साधन नहीं, और जब तक साधन है, तब त ध्यान नहीं। लेकिन ध्यान के लिए भी साधन का उपयोग करना पड़ता है। पर ध्यान स्वयं साधन नहीं है, ध्यान अवस्था है— स्टेट आफ माइंड | ऋषि कहता है, आनंद की ही वे भिक्षा मांगते हैं । वही उनका भोजन है, वही उनका आहार है, वही उनका जीवन है। साधन वे नहीं मांगते | जिसने साधन मांगा, वह गृहस्थ है। जिसने साध्य मांगा, वह संन्यासी है। जिसने रास्ते मांगे, उसे मंजिल कभी न मिलेगी। जिसने मंजिल मांगी, मंजिल यहीं है। जाता मगर अगर आपसे कोई कहे कि आनंद सीधा ही मिल जाता है, मत मांगो मकान, मत मांगो कार । • तो जरा आंख बंद करके भीतर सोचना । मन कहेगा, छोड़ो ऐसे आनंद को, जो बिना कार के ही मिल है। । हम तो कार वाला, मकान वाला, महल वाला, स्त्री वाला, पुरुष वाला आनंद चाहते हैं । छोड़ो ऐसे आनंद को। ऐसे आनंद में क्या रस होगा? करोगे क्या ऐसे आनंद को ? ऐसे आनंद से विवाह करोगे? ऐसे आनंद के साथ रहोगे ? करोगे क्या ऐसे आनंद को छोड़ो ! ऐसे आनंद में क्या है जो बिना ही किसी चीज के मिल जाता है ! चीज तो चाहिए ही। कंटेनर तो चाहिए ही। डब्बा तो चाहिए ही, चाहे वह खाली ही हो। कंटेंट से किसी को प्रयोजन नहीं है। सकता संन्यासी आत्मा ही मांगता है, काया नहीं । साधन नहीं, साध्य ही मांगता है। वस्तु नहीं, अस्तित्व मांगता है। महाश्मशान में भी वे ऐसे विचरण करते हैं, जैसे आनंद-वन में हों। मरघट में भी वे ऐसे जीते, जैसे महल में हों। असल में मरघट और महल का फासला उनके लिए ही है, जिनके मन में महल की आकांक्षा है। ध्यान रखना, मरघट और महल में कोई फासला नहीं है। फासला हमारी आकांक्षा का है। महल हम चाहते हैं, मरघट हम नहीं चाहते। इसी से फासला है, अन्यथा महल और मरघट में क्या फासला है ! जहां महल खड़े हैं, वहां मरघट बहुत दफे बन चुके । और जहां मरघट बने हैं, वहां बहुत दफे महल बनकर गिर चुके । और सब महल अंततः मरघट बन जाते हैं और सब मरघटों पर महल खड़े हो जाते हैं। फर्क क्या है ? फासला क्या है ? हमारी आकांक्षा में फासला है। महल हम चाहते हैं, मरघट हम नहीं चाहते। इसलिए महल तो हम 183
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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