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________________ निर्वाण उपनिषद बस्ती के बीच में बनाते हैं और मरघट गांव के बाहर कि दिखाई भी न पड़े, उधर से गुजरना भी न पड़े। ऐसी जगह बनाते हैं, जहां से कोई रास्ता भी न गुजरता हो, आगे न जाता हो, मरघट पर ही खतम हो जाता हो। और मरघट हम सदा दूसरों को पहुंचाने जाते हैं-सदा। दूसरों को पहुंचाने में तो बड़ा रस भी आता है। अपने को पहंचाने का तो मौका नहीं आता। वह दसरे करते हैं वह काम। जब हमने उनकी इतनी सेवा की, तो वे भी हमारी कुछ सेवा तो करेंगे ही। मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोस में किसी की पत्नी मर गई। यह तीसरी पत्नी थी। पहले दो और मर चुकी थीं। ऐसी अच्छी पत्नियां मुश्किल से मिलती हैं। मुल्ला दो पत्नियों को मरघट तक पहुंचा आया था मित्र की। तीसरी मर गई। मरघट पर ले जाने की तैयारी हो गई। मुल्ला की पत्नी बार-बार देखती है कि यह मुल्ला बैठा ही हुआ है। उसने कहा कि जाना नहीं है! लोग बिलकुल तैयार हो गए, बैंड-बाजा बजने लगा। मुल्ला ने कहा कि मैं बार-बार जाता हूं और उसको मैंने अभी तक एक भी मौका नहीं दिया-नाट ए सिंगल अपरचुनिटी। तो अच्छा भी तो नहीं लगता, संकोच भी होता है। उसकी पत्नियां मैं दो बार पहुंचा आया और मैंने उसे एक भी मौका नहीं दिया, तो बार-बार जाना अच्छा नहीं लगता, जब तक चुका न दें। एकाध तो कम से कम हम भी मौका दें। फिर जाना ठीक होगा। काफी ऋणी हो गया हूं उसका। __तो दूसरों को हम पहुंचाते हैं, बड़े सुख से पहुंचाते हैं। बड़ा दुख प्रकट करते हुए पहुंचाते हैं, लेकिन एक भीतरी सुख मन में मिलता है कि मैं अभी भी जिंदा हूं। यह सदा दूसरा ही मर रहा है। हम तो जिंदा ही हैं। आज अमरा, कल ब मरा, परसों स मरा, लेकिन हम 2 हम जिंदा हैं! न मालूम कितनों को मरते हुए देखा, लेकिन हम नहीं मरते। एक भीतरी रस मिलता है कि फिर कोई दूसरा मरा। अपने मरने का तो पता भी नहीं चलता, क्योंकि जब आप मर ही गए! इसलिए अपने मरने का किसी को पता नहीं चलता। . अपने को मरघट कोई नहीं पहुंचाता। ___पर संन्यासी वही है, जो अपने को मरघट पहुंचा देता है। जो कहता है, मरघट भी अब हमारा आवास है। महल और मरघट में उसे फर्क नहीं रह जाता। मरघट भी उसके लिए आनंद-विहार हो जाता है। वहां भी ऐसे जीने लगता है, जैसे घर हो। ___ मृत्यु और जीवन में फर्क गिरे, तभी महल और मरघट का फर्क गिर सकता है। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह मृत्यु ही मालूम होने लगे, तभी जिसे हम मरघट कहते हैं, वह आवास बन सकता है। जिसे हम दुख कहते हैं, जिसे हम सुख कहते हैं, जब उनके बीच का फासला गिर जाए और दुख सुख मालूम होने लगे, और सुख दुख मालूम होने लगे, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू मालूम होने लगें, उस दिन मरघट आनंद-वन हो सकता है। उसके पहले नहीं। तो यह केवल सूचना है कि संन्यासी को महाश्मशान भी आवास ही मालूम पड़ता है, आनंद-विहार ही मालूम पड़ता है। कोई फर्क नहीं रह जाता। एकांत ही उनका मठ है। एकांत के दो अर्थ हैं। एक तो टु बी लोनली, अकेलापन। और दूसरा एकाकी, टु बी अलोन। दोनों में बड़ा फर्क है। यहां ऋषि जब कहता है, एकांत ही उनका मठ है, तो इट मीन्स, टु बी अलोन, नाट लोनलीनेस। ध्यान रहे, जब हमें अकेलापन लगता है, लोनलीनेस लगती है, तो उसका मतलब है कि दूसरे की 7 184
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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