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________________ निर्वाण उपनिषद आदमी यहीं गिरकर मिट्टी का ढेर हो जाएगा। चलेगा कैसे! उठेगा कैसे! दौड़ेगा कैसे! नीत्से ने कहा है, सत्य से नहीं जीता है आदमी, आदमी असत्य से जीता है। असत्य जरूरी है, अनट्रथ्स। नहीं तो जी नहीं सकता। उन्हीं के सहारे तो जीता है। पर नीत्से पागल होकर मरा। मरेगा ही, क्योंकि यह आखिरी तर्क है दौड़ का, तीसरा तर्क है-अल्टीमेट। और नीत्से बहुत विचारशील व्यक्ति था, बहुत विचारशील, अति विचारशील। कहा जा सकता है, इन सौ वर्षों में इतना तर्कयुक्त और इतना गहन विचार करने वाला व्यक्ति दूसरा नहीं हुआ। लेकिन मरा बहुत दुख में। दुख में जीया, विक्षिप्त हुआ। इन सौ वर्षों में इतनी पेनिट्रेटिंग, इतनी गहरे प्रवेश कर जाने वाली बातें किसी दूसरे आदमी ने नहीं कहीं। लेकिन इस आदमी का फल क्या? वह आखिरी तर्क पर था। प्रतिभा थी, तो तर्क को उसने बिलकुल साफ-सुथरा कर लिया। उसने कहा, जो नहीं मिलता है इतना खोजे से, वह है ही नहीं। मिलेगा कैसे? ___ ऋषि कहते हैं, नहीं मिलता है, फिर भी है। नहीं मिलता, क्योंकि तुम खोजते हो, क्योंकि तुम दौड़ते हो। मिल सकता है, रुक जाओ, ठहर जाओ। मत दौड़ो, मत भागो, दृष्टि को मत भटकाओ। रोक लो, दृष्टि को भीतर डूब जाने दो। मिलता है, लेकिन खोजने से नहीं। क्योंकि वह पहले से ही मिला हुआ है। स्वरूप का यह अर्थ होता है, जो है ही। इसलिए आनंद ही मांगना चाहिए, साधन नहीं। जो साधन मांगेगा, वह दौड़ता रहेगा, दौड़ के तर्कों में उलझा रहेगा। और अनंत जन्मों तक यह दौड़ चल सकती है। इस दौड़ का कोई अंत नहीं आता। और बुद्धि हो, विवेक हो, तो क्षण में यह दौड़ छूट सकती है और आदमी उसी क्षण में भीतर प्रवेश कर सकता है। एक क्षण में भी यह घटना घट सकती है। और अनंत काल में भी न घटे। अगर आप गलत दिशा में . निकल पड़े हैं, तो अनंत काल चलने पर भी नहीं पहुंचेंगे और ठीक दिशा में एक कदम उठा लेने से भी पहुंचना हो जाता है। मंजिल दूर नहीं है। मंजिल बिलकुल भीतर है। ___ यही उपद्रव है। अगर मंजिल दूर होती, तो हम पहाड़ चढ़ लेते, एवरेस्ट चढ़ जाते। प्रशांत महासागर में दबी होती, डूब जाते। चांद पर होती, पहंच जाते। उपद्रव यही है कि मंजिल हमारे भीतर है। खोजी के भीतर गंतव्य है। वही तकलीफ है। तो ऋषि साधन नहीं मांगता। वह यह नहीं कहता कि हे प्रभु, मुझे धन दो, ताकि मैं आनंद पा सकू; कि मुझे बड़ा भवन दो कि मैं आनंदित हो सकूँ। वह कहता है, न भवन, न धन, तुम मुझे आनंद ही दो। मुझे सीधा आनंद ही दो। और जब साधन से कोई आनंद मिलता है, तो वह आनंद नहीं होता है, सुख होता है। ध्यान रखना, साधन से जब भी कुछ मिलता है, वह सुख होता है। और सुख थिर नहीं हो सकता। आता है, जाता है। इसलिए साधन से जो भी मिलता है, उससे दुख पैदा होता है, क्योंकि सुख आएगा और जब जाएगा तो दुख छोड़ जाएगा। असाधन से, बिना साधन के जो मिलता है, वह आनंद है। ___ इसलिए ध्यान को साधन मत समझना। ध्यान साधन नहीं है-नाट ए मेथड। कहते हैं, क्योंकि कहने की अपनी तकलीफें हैं, कोई उपाय नहीं है। कहते हैं, साधना कर रहे हैं। साधना का मतलब, साधन का उपयोग कर रहे हैं। कहते हैं कि ध्यान एक साधन है। तो कहने की तकलीफें हैं, कोई उपाय 7182
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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