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आनंद और आलोक की अभीप्सा, उन्मनी गति और परमात्म- आलंबन
नहीं पड़ता ।
लेकिन मकान तो मिला ही हुआ नहीं है, जमीन तो मिली ही हुई नहीं है, धन तो मिला ही हुआ नहीं है। उसे मिलाना पड़ेगा, लाना पड़ेगा, खोजना पड़ेगा, बनाना पड़ेगा, निर्मित करना पड़ेगा, अर्जित करना पड़ेगा। एंड आल दैट कैन बी अर्ल्ड, कैन नेवर बी ब्लिस। और जो भी कमाया जा सकता है, वह आनंद नहीं हो सकता। आनंद तो अनअर्ड, आलरेडी गिवेन है।
नहीं, उसे अर्जित नहीं करना होता, वह है ही। सिर्फ उस तल पर जाकर देखना भर काफी है। आंख भर भीतर मुड़ जाए तो काफी है। खजाना घर में ही गड़ा है। हम बाहर खोज रहे हैं। मकान के चारों तरफ दौड़ रहे हैं, पूरी जमीन का चक्कर लगा रहे हैं। वह नहीं मिल रहा है। मिलेगा भी नहीं। जितना चक्कर में हम पड़ते जाएंगे, उतना ही मिलने की संभावना क्षीण होने लगेगी। क्योंकि चक्कर का एक तर्क है। जब आदमी दौड़ता है उसे खोजने जो उसके भीतर है और दौड़कर नहीं पाता क्योंकि दौड़कर पा नहीं सकता, ठहरकर पा सकता है— जब दौड़ता है और नहीं पाता है, तो दौड़ का तर्क यह कहता है कि तुम जरा धीरे दौड़ रहे हो, इसलिए नहीं मिल रहा है। तेजी से दौड़ता है, पूरी ताकत लगा देता है।
दौड़ने का दूसरा तर्क भी है। जब वह पूरी ताकत लगा देता है और तब भी नहीं मिलता, तो दौड़ने का तर्क कहता है कि तुम गलत रास्ते पर दौड़ रहे हो । रास्ता बदलो ।
रास्ता बदल दे और तेजी से दौड़ता रहे, अनेक रास्तों की पहचान कर ले, तब भी दौड़ने का एक आखिरी तर्क है। अगर फिर भी आनंद न मिले - मिलेगा ही नहीं, मिलने का तो कोई कारण नहीं है - तो दौड़ने का तर्क कहता है, आनंद है ही नहीं, इसलिए नहीं मिलता है।
'ये तीन तर्क हैं दौड़ने के। पहले वह कहता है, जोर से दौड़ो तो मिलेगा, ऐसे धीरे-धीरे चलने से कहीं मिलता है ? देखो, पड़ोस के लोग कितने तेजी से दौड़ रहे हैं। देखो, फलां आदमी को मिल गया, वह दिल्ली पहुंच गया। उसको मिल गया आनंद, तुम भी तेजी से दौड़ो, तो तुमको भी मिल जाएगा। तो तेजी से दौड़ो ।
फिर अगर तेजी से दौड़कर दिल्ली भी पहुंच जाओ और वहां न मिले, तो उसका मतलब है, रास्ता बदलो। तुम गलत रास्ते पर दौड़ रहे हो। फिर रास्ते जन्म-जन्म बदलोगे, क्योंकि अनंत रास्ते हैं जो कहीं नहीं ले जाते। जो कहीं नहीं ले जाते। कम से कम आनंद तक तो नहीं ले जाते। क्योंकि आनंद तक किसी रास्ते की जरूरत नहीं है । वह है भीतर, वहां आप खड़े हैं। सिर्फ आपकी नजर बहुत दूर के रास्तों पर भटक गई है, बहुत दूर चली गई है— अपने से बहुत दूर चली गई है।
तो फिर आखिर में थका हुआ तर्क कहता है कि आनंद होगा ही नहीं, इसलिए नहीं मिलता है। क्योंकि अगर होता, तो हमने सब रास्ते खोज डाले, सब साधन प्रयोग कर लिए, सब राजधानियां तलाश डालीं, सब महलों में रह चुके । नहीं, आनंद है ही नहीं ।
नीत्से ने कहा है, आनंद है ही नहीं। जिसे तुम खोजते हो, वह है ही नहीं, इसलिए मिलेगा कैसे ! आनंद सिर्फ आशा है, नीत्से ने कहा है, सिर्फ कल्पना है। नीत्से ने कहा है, लेकिन जरूरी कल्पना है, क्योंकि उसके बिना आदमी को जीना बहुत मुश्किल पड़ेगा - ए नेसेसरी अनटुथ । नीत्से का शब्द है, एक आवश्यक झूठ। है नहीं कहीं आनंद । लेकिन अगर ऐसा पता चल जाए कि है नहीं कहीं आनंद, तो
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