________________
आनंद और आलोक की अभीप्सा, उन्मनी गति और परमात्म-आलंबन
उससे कहा, तेरी यह हालत कैसे हो गई? ऐसे तो स्वस्थ दिखाई पड़ता है। तेरी यह हालत कैसे हो गई? जार-जार आंख से उस भिखारी के आंसू गिरने लगे। उसने कहा, मत पूछो मेरा हाल। बड़ी बेहाली का है। मुल्ला ने जल्दी से सौ रुपए का एक नोट निकाला और उसको दिया। उसने आंसू पोंछकर खीसे में नोट रख लिया और मुल्ला से कहा, यही कर-करके मैं भी गरीब हो गया हूं। सावधान रहना! ऐसे ही बांट-बांटकर फंस गया।
तो जरा सरलता हो, तो अमीर के गरीब होने में कोई दिक्कत है? जरा बेईमानी हो, तो गरीब के अमीर होने में कोई कठिनाई है? चेहरा बदलना जहां इतना आसान हो, वह चेहरा हमारा मौलिक चेहरा नहीं हो सकता। वह हमारा स्वरूप नहीं हो सकता। तो एक बात ध्यान रखें कि जो भी बदला जा सकता है, वह हमारा स्वभाव नहीं है।
लेकिन कुछ बातें हम सोचते हैं, नहीं बदली जा सकतीं, जैसे मैं पुरुष हूं, आप गलती में हैं। गरीब का अमीर होना मुश्किल है, हिंदू का मुसलमान होना मुश्किल, आपका स्त्री हो जाना बहुत ही सुगम है। एक इंजेक्शन से हो सकता है। एक ग्लैंड काट देने से हो सकता है। और जल्दी ही, जो अभी जवान हैं, पैंतीस साल के इस तरफ हैं, वे अपनी जिंदगी में यह देख पाएंगे कि आदमी के लिए सुविधा हो जाएगी अल्टरनेटिव कि कोई आदमी पुरुष होने से थक गया, तो स्त्री हो जाएगा; स्त्री होने से थक गया, तो पुरुष हो जाएगा। थक तो जाते हैं सभी। स्त्रियां सोचती हैं, पता नहीं पुरुष कौन सा आनंद ले रहे हैं। पुरुष सोचते हैं, स्त्रियां पता नहीं कौन सा आनंद ले रही हैं। बदलाहट जल्दी हो जाएगी। - अब तो उपाय खोज लिए गए हैं, अब कठिनाई नहीं है। जरा सा ही हार्मोन्स का फर्क है, और कुछ बात नहीं है। हार्मोन भी बहुत ज्यादा नहीं हैं, एक सिरिंज में समा जाएं, इतने। उनको डाल देने से पुरुष स्त्री हो सकता है, स्त्री पुरुष हो सकती है। यह चेहरा फिर मौलिक नहीं रह गया। यह स्त्री या पुरुष होना कोई बड़ी मतलब की बात नहीं है। यह बड़ी ऊपरी है, कपड़ों की है। अब तक हम कपड़े बदलना नहीं जानते थे, यह बात दूसरी है। अब हम जानते हैं।
लेकिन ऋषि तो बहुत पहले से कहते रहे हैं, जब कि स्त्री पुरुष नहीं बनाई जा सकती थी, तब भी वे कहते थे कि तुम न स्त्री हो, न तुम पुरुष हो। तुम तो वह हो, जो भीतर से जानता है कि मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष हूं। तुम तो वह ज्ञाता हो।
प्रवेश करना है भीतर वहां, जहां कोई आवरण नहीं रह जाता। जहां सिर्फ वही रह जाता है, जो जानने की क्षमता है। बस, जानना मात्र एक ऐसी चीज है जिससे हम अपने को अलग नहीं कर सकते, जिससे हमारा तादात्म्य नहीं है, जिससे हमारा स्वरूपगत, जो हमारा स्वरूप है, स्वरूप ही है। और जिस दिन कोई जानने की शुद्ध क्षमता को उपलब्ध होता है, उसी दिन आनंद से भर जाता है। और उसी दिन अमृत से भर जाता है। ___इसलिए ऋषियों ने उस स्थिति के लिए कहा है, सच्चिदानंद। सत, चित, आनंद। सत का अर्थ है, वह जो सदा रहेगा-द इटरनल, द इटरनली ट. शाश्वत रूप से जो सत्य होगा। सत का अर्थ है. जो कभी भी अन्यथा नहीं होगा। चित का अर्थ है चैतन्य, ज्ञान, बोध। जो सदा बोध से भरा रहेगा, जिसका बोध कभी नहीं खोएगा। और आनंद का अर्थ है ब्लिस, जो सदा सुख-दुख के पार, एक परम रहस्य में,
1797