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आनंद और आलोक की अभीप्सा, उन्मनी गति और परमात्म- आलंबन
कभी पता ही नहीं चला कि वह सिंह है। पता चलता भी कैसे पता चलने का कोई उपाय भी न था । वह सिंह अपने को भेड़ मानकर बड़ा हुआ। हालांकि उसके मानने से कुछ फर्क न पड़ा। रहा वह सिंह ही । लेकिन फिर भी फर्क पड़ा। फर्क यह पड़ा कि वह भेड़ जैसा वर्तन करने लगा। भेड़ तो था नहीं, हो भी नहीं सकता था। लेकिन भेड़ जैसा वर्तन आविष्ट हो गया ।
एक दिन बड़ी अनूठी घटना घटी। एक सिंह ने उस भेड़ों की भीड़ पर हमला किया। तो वह सिंह देखकर चकित हुआ कि उस भेड़ों की भीड़ में भेड़ों से बहुत ऊपर उठा हुआ एक सिंह भी चल रहा है। भेड़ों जैसा ही घसर-पसर, उनके साथ ही । न भेड़ें भागती हैं उससे, न वह सिंह | इस सिंह को देखकर भेड़ें भागीं, वह सिंह भी भागा। सिंह तो बहुत चकित हुआ कि इस सिंह को क्या हो गया !
आइडेंटिफिकेशन, तादात्म्य हो गया । भेड़ों के बीच रहते-रहते, रहते-रहते, भेड़ों की आकृति मन में बनते-बनते दर्पण ने समझा कि मैं भेड़ हूं।
सिंह ने भेड़ों की तो फिक्र छोड़ दी - इस दूसरे सिंह ने उस सिंह को पकड़ने की चेष्टा की । बामुश्किल पकड़ पाया, क्योंकि था तो वह सिंह, तो भागता सिंह की तरह था । गति उसकी सिंह की थी, मान्यता उसकी भेड़ की थी। बाकी तो किसी भी भेड़ को पकड़ लेना उस दूसरे सिंह को बड़ा आसान था, इस सिंह को तो वह घंटों के बाद बामुश्किल पकड़ पाया। पकड़ते से ही वह सिंह तो मिमियाने लगा, . जैसा भेड़ें मिमियाती हैं।
उसको तो गर्जना का कोई पता ही न था । गर्जना अब भी उसके हृदय के किसी कोने में पड़ी थी, अभी भी बीज थी, अभी भी अंकुरित नहीं हुई थी । उसे सिंह गर्जन का कोई अनुभव ही नहीं था । कर सकता था, कैपेसिटी थी, क्षमता थी, लेकिन योग्यता न थी । कैपेबिलिटी और एबिलिटी का फर्क । कैपेबल था। कोई कारण न था, जब चाहे तब सिंह गर्जना कर सकता था। लेकिन योग्यता न थी, क्योंकि योग्यता को तादात्म्य ने नष्ट कर दी थी। खयाल में ही नहीं था ।
दूसरे सिंह ने पकड़ा, तो हाथ-पैर जोड़ने लगा, सिर रखने लगा उसके पैरों पर, मिमियाने लगा । आंखों से आंसू बहने लगे। कहने लगा, क्षमा करो। छोड़ दो। उस दूसरे सिंह ने कहा, तुझे हो क्या गया है ? तू भेड़ नहीं है ! उसने कहा, नहीं, मैं भेड़ हूं। मैं भेड़ ही हूं। तुम भूल में पड़े हो। सिंह ने बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन समझाने कहीं कुछ समझ में आता है ? जितना वह समझाने लगा, उतना वह और घबराने लगा। वह कहने लगा, तुम मुझे सिर्फ छोड़ दो। मुझे ज्ञान की कोई जरूरत नहीं है। मुझे मेरे मित्रों के पास जाने । उनके बिना मैं बहुत घबरा रहा हूं।
भेड़ भीड़ के बिना नहीं जी सकती। एकांत में तो सिंह ही जी सकता है । भेड़ तो भीड़ में ही जी सकती है। क्योंकि उसे सुरक्षा मालूम पड़ती है, सब तरफ अपने हैं। परिवार, प्रियजन, मित्र, पत्नी, बेटे, सब अपने हैं। तो भीड़ के बीच में भेड़ सुरक्षित है, कोई डर नहीं है। अपने पर जिसे भरोसा नहीं है, उसे सदा भीड़ पर भरोसा होता है। भीड़ ही उसका सहारा है। सिंह अकेला जी सकता है, लेकिन सिंह होने का पता हो तब न । सिंह को भीड़ में नहीं रखा जा सकता।
कोई उपाय न देखकर उस सिंह ने उसको घसीटा। घसिट गया, क्योंकि वह भेड़ था। ऐसे जवान था और यह बूढ़ा था। लेकिन जवान सिंह बूढ़े सिंह से घसिट गया, क्योंकि बूढ़ा हो तो भी सिंह था। यह
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