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________________ निर्वाण उपनिषद नहीं, मृत्यु तो फिर भी आती है, लेकिन उस पर नहीं आती अब। वह पार और दूर और अछूता, अनटच्ड खड़ा रह जाता है। दुख तो अब भी आते हैं, बीमारियां अब भी आती हैं, पैरों में अब भी कांटे गड़ते हैं, बुढ़ापा अब भी आता है, लेकिन अब उस पर नहीं आता। वह दूर खड़ा रह जाता है, अस्पर्शित, कमल के पत्ते जैसा। पानी की बूंद उस पर पड़ी है, लेकिन फिर भी छूती नहीं। पानी में डूबा है पत्ता, फिर भी दूर। पानी और पत्ते के बीच एक बारीक फासला है। ___ जीसस को सूली लगती है, तो शरीर तो मर जाता है, पर जीसस दूर खड़े रह जाते हैं। मंसूर काटा जाता है, तो शरीर तो टुकड़े-टुकड़े हो जाता है, लेकिन मंसूर हंसता रहता है। और जब कोई भीड़ में से पूछता है कि मंसूर, हंसने जैसा इसमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हाथ-पैर काटे जा रहे हैं। मंसूर कहता है, तुम जिसे काटते हो, अगर वह मैं होता, तो निश्चित न हंसता, न हंस पाता। हंस रहा हूं इसलिए कि तुम जिसे समझ रहे हो कि मैं हूं, वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं, उसे तुम काट न पाओगे। स्वरूप को, आनंद को अनुभव करने वाला व्यक्ति दुख से घिर सकता है, लेकिन दुख के तादात्म्य में नहीं पड़ता। अंधेरा उसे घेर ले सकता है, लेकिन वह स्वयं अंधकार कभी नहीं होता। हमारे और उसके बीच एक ही फर्क है। जो हमें घेरता है, हम उसके साथ अपने को एक ही मान लेते हैं। ऐसा नहीं कहते हम कि मुझ पर दुख आया, कहते हैं, मैं दुखी हो गया। एक आइडेंटिटी बना लेते हैं। गुरजिएफ की सारी साधना एक ही बात की थी। वह कहता था, नान-आइडेंटिफिकेशन, तादात्म्य तोडना-बस यही साधना है। हम चीजों से जड जाते हैं। और इतने जड जाते हैं कि लगने लगता है. यही मैं हूं। जैसे दर्पण में कोई तस्वीर बने और दर्पण समझ ले कि यह तस्वीर ही मैं हूं। जैसे झील में चांद दिखाई पड़े और झील कहने लगे, चांद मैं हूं, ऐसे हम हो जाते हैं। दुख छलकता है भीतर, छाया बनती है दुख की, मैं दुख हो जाता। सुख आता है, मैं सुख हो जाता। अशांति आती है, मैं अशांति हो जाता। शांति आती है, मैं शांति हो जाता। अपने को पार नहीं रख पाता, दूर नहीं रख पाता कि जो आ रहा है, वह मैं नहीं हो सकता, क्योंकि मैं तो उसके आने के पहले से ही मौजूद हूं। जब नहीं दुख आया था, तब भी मैं था; और जब दुख चला जाएगा, तब भी मैं होऊंगा, तो मेरा होना दुख के साथ एक नहीं हो सकता। कितना ही, कितना ही दुख घेर ले, तब भी मैं किसी तल पर दूर ही खड़ा रह जाता हूं। इस दूरी की प्रतीति, इस तादात्म्य का टूट जाना, नान-आइडेंटिफिकेशन योग है। __ और ऋषि कहता है, योगेन, योग के द्वारा वे सदैव आनंद-स्वरूप में स्थित, सदैव आनंद का दर्शन करते रहते हैं। क्षणभर को भी फिर आनंद स्खलित नहीं होता। क्षणभर को भी आनंद से संबंध नहीं टूटता। अभी भी टूटा नहीं है। सिर्फ स्मरण नहीं है। आइडेंटिफिकेशन, तादात्म्य स्मृति को नष्ट करता है, स्थिति को नहीं। __विवेकानंद निरंतर एक कहानी कहा करते थे। बहुत पुरानी कथा है भारतीय मनीषियों की। एक सिंहनी ने छलांग लगाई एक पर्वत से। छलांग के बीच ही उसको बच्चा हो गया। वह गर्भिणी थी। नीचे भेड़ों की एक भीड़ गुजरती थी, वह बच्चा उसमें गिर गया। भेड़ों ने उसे बड़ा किया। भेड़ों के बीच ही वह रहा, भेड़ों का ही दूध पीया, भेड़ें ही उसकी मां थीं, पिता थे, संगी-साथी थे, मित्र थे। उस सिंह को 17176
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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