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आनंद सदैव न हो तो आनंद नहीं है। दुख आता है, जाता है। सुख भी आता है और जाता है। जो न आता कभी और जो न कभी जाता है, उसका नाम ही आनंद है। जो है ही हमारे भीतर, जो हमारा स्वभाव है, स्वरूप है। जो भी आता है और जाता है, वह पर भाव है। वह स्वभाव नहीं है। वह हम नहीं हैं। जो भी हम पर आ जाता है और चला जाता है, वह हम नहीं हैं। हम तो वह हैं, जिस पर दुख आता है, जिस पर सुख आता है। हम भिन्न हैं। जिस पर सुख-दुख आते हैं, वह स्वभाव आनंद-स्वरूप है।
पर हमें उस स्वभाव का पता ही नहीं चलता। हम उसमें ही उलझे रहते हैं, जो आता है और जाता है। झेन फकीर कहते हैं, द होस्ट इज़ लॉस्ट इन द गेस्ट्स । वह जो मेजबान है, वह मेहमानों में खो गया है। घर का जो मालिक है, जो आतिथेय है, वह अतिथियों की सेवा करते-करते यह भल ही गया है कि मैं भी हूं-अतिथियों से अलग, भिन्न, पृथक।
ऐसे ही हम अतिथियों की सेवा करते-करते भूल ही गए हैं कि हम कौन हैं। दुख जिसमें निवास कर लेता है, सुख जिसमें निवास कर लेता है, वह कौन है? वह कौन है जो अनुभव करता है कि मैं दुखी हो . रहा हूं? वह कौन है जो अनुभव करता है कि मैं सुखी हो रहा हूं? ।
निश्चित ही, वह सुख और दुख से अलग है, क्योंकि अनुभव करने वाला अलग ही होगा। अनुभोक्ता पृथक ही होगा। मैं इस वृक्ष को देखता हूं, तो मैं वृक्ष से अलग हो गया। मैं आपको देखता हूं, तो मैं आपसे अलग हो गया। मैं अपने शरीर को देखता हूं, तो मैं अपने शरीर से अलग हो गया। वह जो देखने वाला है, वह दृश्य से अलग हो गया। हो ही जाएगा, नहीं तो देख नहीं पाएगा। अगर द्रष्टा दृश्य से अलग न हो, तो देखेगा कैसे! देखने के लिए फासला चाहिए, डिस्टेंस चाहिए, दूरी चाहिए। ___तो जिसे भी हम देख पाते हैं, उससे हम भिन्न हो जाते हैं। इसीलिए हम परमात्मा को देख नहीं पाते। क्योंकि उससे हम भिन्न नहीं हैं। उससे हम अभिन्न हैं। देखेगा कौन? देखेगा किसको? उसके साथ हम एक हैं। जिसे हम छू पाते हैं, उससे अलग हो जाते हैं; जिसे सुन पाते हैं, उससे अलग हो जाते हैं। इंद्रियां जो भी जानती हैं, उससे हम अलग हो जाते हैं। मन जो भी पहचानता है, उससे हम अलग हो जाते हैं।
सुख को भी जानते हैं। जब सुख आता है, तब आप भलीभांति जानते हैं कि सुख आया। दुख आता है, भलीभांति जानते हैं, दुख आया। जाता है, तब भी जानते हैं कि दुख जा रहा है। यह जो जानने वाला है, यह अलग है, यह भिन्न है। यही स्वरूप है।
इस स्वरूप में वे योग के द्वारा थिर हो जाते और सदैव आनंद का अनभव करते हैं। ___और जो व्यक्ति भी इस भीतर के स्वरूप में थिर हो जाता है, रमण को उपलब्ध हो जाता है, स्वयं में स्वस्थ हो जाता है, स्वयं में स्थित हो जाता है, ऐसा व्यक्ति सदैव, उपनिषद का ऋषि कहता है, सदैव आनंद में डूबा रहता है। क्या फिर उसके ऊपर दुख नहीं आते? क्या फिर बीमारी नहीं आती? क्या फिर जरा नहीं आती? क्या फिर मृत्यु नहीं आती?