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निर्वाण उपनिषद
यह कहां था? निश्चित ही यह विचार में तो नहीं था, नहीं तो आप पहले ही पकड़ लेते। यह विचार से नीचे के तल पर था।
तीन तल हुए–एक वाणी में प्रकट हो, एक विचार में प्रकट हो, एक विचार के नीचे अचेतन में हो। ऋषि कहते हैं, उसके नीचे भी एक तल है। अचेतन में भी होता है, तो भी उसमें आकृति और रूप होता है। उसके भी नीचे एक तल है, महाअचेतन का कहें, जहां उसमें रूप और आकृति भी नहीं होती। वह अरूप होता है। जैसे एक बादल आकाश में भटक रहा है। अभी वर्षा नहीं हुई। ऐसा एक कोई अज्ञात तल पर भीतर कोई संभावित, पोटेंशियल विचार घूम रहा है। वह अचेतन में आकर अंकुरित होगा, चेतन में आकर प्रकट होगा, वाणी में आकर अभिव्यक्त हो जाएगा। ऐसे चार तल हैं।
गायत्री उस तल पर उपयोग की है जो पहला तल है, सबसे नीचे। उस तल पर अजपा का प्रवेश है।
तो जप का नियम है। अगर कोई भी जप शुरू करें-समझें कि राम-राम जप शुरू करते हैं, या ॐ, कोई भी जप शुरू करते हैं; या अल्लाह, कोई भी जप शुरू करते हैं तो पहले उसे वाणी से शुरू करें। पहले कहें, राम, राम; जोर से कहें। फिर जब यह इतना सहज हो जाए कि करना न पड़े और होने लगे; इसमें कोई एफर्ट न रह जाए पीछे, प्रयत्न न रह जाए, यह होने लगे; जैसे श्वास चलती है, ऐसा हो जाए कि राम, राम चलता ही रहे, तो फिर ओंठ बंद कर लें। फिर उसको भीतर चलने दें। फिर बोलें न राम, राम; फिर भीतर बोल चले राम, राम।
फिर इतना इसका अभ्यास हो जाए कि उसमें भी प्रयत्न न करना पड़े, तब इसे वहां से भी छोड़ दें, तब यह और नीचे डब जाएगा। और अचेतन में चलने लगेगा-राम, राम। आपको भी पता न चलेगा कि चल रहा है, और चलता रहेगा। फिर वहां से भी गिरा दिए जाने की विधियां हैं और तब वह अजपा . में गिर जाता है। फिर वहां राम, राम भी नहीं चलता। फिर राम का भाव ही रह जाता है—जस्ट क्लाउडी, एक बादल की तरह छा जाता है। जैसे पहाड़ पर कभी बादल बैठ जाता है धुआं-धुआं, ऐसा भीतर प्राणों के गहरे में अरूप छा जाता है।
उसको कहा है ऋषि ने, अजपा। और जब अजपा हो जाए कोई मंत्र, तब वह गायत्री बन गया। अन्यथा वह गायत्री नहीं है।
और क्या है इस अजपा का उपयोग? इस अजपा से सिद्ध क्या होगा? इससे सिद्ध होगा, विकार-मुक्ति। विकारदंडो ध्येयः। इस अजपा का लक्ष्य है विकार से मुक्ति। __यह बहुत अदभुत कीमिया है, केमेस्ट्री है इसकी। मंत्र शास्त्र का अपना पूरा रसायन है। मंत्र शास्त्र यह कहता है कि अगर कोई भी मंत्र का उपयोग अजपा तक चला जाए, तो आपके चित्त से कामवासना क्षीण हो जाएगी, सब विकार गिर जाएंगे। क्योंकि जो व्यक्ति अपने अंतिम अचेतन तल तक पहुंचने में समर्थ हो गया, उसको फिर कोई चीज विकारग्रस्त नहीं कर सकती। क्योंकि सब विकार ऊपर-ऊपर हैं, भीतर तो निर्विकार बैठा हुआ है। हमें उसका पता नहीं है, इसलिए हम विकार से उलझे रहते हैं।
ऐसा समझें कि एक घाटी है अंधेरी, और सीलन से भरी और बदबू से भरी। और जंगली जानवर हैं और सांप हैं और सब कुछ उपद्रव है। एक आदमी उस घाटी में है। वह बड़ा परेशान है कि सांपों से कैसे बचूं और सिंह न खा जाए और कोई हमला न कर दे और अंधेरा है और बदबू है और बीमारी है।
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