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साधक के लिए शून्यता, सत्य योग, अजपा गायत्री और विकार मुक्ति का महत्व
स्व-संवत् का अर्थ है कि हमारे भीतर वह जो आदि चेतना है, वह जो ओरिजनल कांशसनेस है, वह जो सदा से हमारे भीतर है, वह हमें भूल गई है, क्योंकि हम उस पर ही सवार हैं और उसी को खोज रहे हैं। तो खोजते रहें। ऋषि चिल्लाकर कहते हैं कि जरा ठहरो, किसे खोजने निकले हो ? जरा रुको, जरा सुनो भी! क्योंकि तुम जिसे खोजने निकले हो, कहीं उसी पर तो सवार नहीं हो ! कहीं तुम वही तो नहीं हो, जिसको खोजने निकले हो !
जो जानते हैं, वे कहते हैं, द सीकर इज़ द साट । वह जो खोज रहा है, उसकी ही खोज चल रही है, इसलिए हो नहीं पाती, इसलिए असफलता हो जाती है।
झेन फकीर कहते हैं, डोन्ट सीक, इफ यू वान्ट टु सीक । खोजो ही मत, अगर खोजना है। रुक जाओ। क्योंकि खोजने में तो दौड़ना पड़ेगा । ठहर जाओ। और एक दफा देखो तो कि तुम कौन हो ? तुम किसे खोजने निकले हो ? कहीं वह तुम्हारे भीतर ही तो नहीं है ?
स्व-संवित् का अर्थ होता है, जिसे जानने के लिए किसी और प्रकाश की जरूरत न पड़ेगी, और जिसे पहचानने के लिए किसी से पूछना न पड़ेगा। जिसके होने में ही जिसकी पहचान छिपी है, जिसके होने में ही जिसका प्रकाश छिपा है, जो अपने से ही प्रकाशित है। दूसरे किसी प्रकाश की कोई भी जरूरत नहीं है।
अजपा गायत्री है। विकार- मुक्ति ध्येय है।
गायत्री तो हम सब जानते हैं कि क्या है। लेकिन ऋषि कहता है, अजपा गायत्री। लेकिन जिस गायत्री को हम जानते हैं, वह तो जपी जाती है। वह तो जपा है। तो यह ऋषि तो उलटी बात कह रहा है। यह कह रहा है, अजपागायत्री विकारदंडो ध्येयः । जिसे जपा ही नहीं जा सकता, उसमें ठहर जाना गायत्री है। जिसका कोई नाम ही नहीं, जपोगे कैसे? जिसका कोई शब्द नहीं, जपोगे कैसे? जिसका कोई रूप नहीं, उसे जपोगे कैसे? सब छोड़कर, जप भी छोड़कर जहां पहुंचा जाता है, वहां गायत्री है। वही मंत्र है, जहां मंत्र भी नहीं रह जाता। जहां प्रभु का नाम भी नहीं रह जाता, वहीं उसके नाम की उपलब्धि है— अजपा ।
अगर हम अपने भीतर देखें, शब्द हम बोलते हैं, जब हम शब्द बोलते हैं, उसके पहले भी शब्द होता है एक पर्त नीचे – जब हम शब्द को सोचते हैं— बोला नहीं गया अभी शब्द, सिर्फ सोचा गया है। अभी बाहर प्रकट नहीं हुआ, अभी भीतर ही प्रकट हुआ। लेकिन सोचा गया शब्द जब भीतर प्रकट होता है, उसके पहले भी होता है। तब वह सोचा भी नहीं गया होता है।
कई दफे आपको लगा होगा कि किसी का नाम खो गया है। याद है— लोग कहते हैं, जीभ पर रखा है— फिर भी याद नहीं आता। बड़े अजीब लोग हैं। अगर जीभ पर ही रखा है, तो अब और क्या दिक्कत है? मगर उनकी कठिनाई मैं समझता हूं। उनकी कठिनाई सच्ची है, जीभ पर ही रखा है। उन्हें पक्का पता है कि याद है और याद नहीं आ रहा है। ये दोनों बातें एक साथ हो रही हैं। इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें याद है । यह याद कहां होगा? यह याद उनके विचार के तल के नीचे है; और विचार के तल में पकड़ में नहीं आ रहा है।
और कई दफा अगर आप बहुत कोशिश करें - इन टू मच हरी, सवार हो जाएं खोजने के लिए-न मिलेगा। घबड़ा जाएंगे, परेशान हो जाएंगे, सिर पीट लेंगे। फिर भूल जाएंगे। छोड़ देंगे कि जाने दो। चाय पी रहे हैं और अचानक, वह जो नहीं मिल रहा था, निकल आया और आ गया। यह कहां से आया ?
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