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निर्वाण उपनिषद
पैदा हुए हैं, वे सम्मोहन से जरूर काट देने चाहिए। लेकिन सम्मोहन से स्वास्थ्य नहीं पैदा करना चाहिए, नहीं तो वह झूठा होगा। फर्क समझ लें।
सम्मोहन से पैदा हुई बीमारी है झूठी, मन की मानसिक बीमारी है, तो मानसिक विचार से उसे तोड़ा जा सकता है। लेकिन अगर कोई मानसिक विचार से समझे कि मैं स्वस्थ हूं, मैं स्वस्थ हूं, तो वह स्वास्थ्य भी मानसिक विचार होगा, वह स्वस्थ हो नहीं पाएगा। इसलिए हिप्नोटिज्म का निगेटिव उपयोग हो सकता है। योग में होता है; नकारात्मक, सिर्फ काटने के लिए। पुराने बंधे हुए सम्मोहन को काटने के लिए उपयोग होता है, लेकिन कोई नया सम्मोहन पैदा करने के लिए उपयोग नहीं होता।
झूठे योग में नया सम्मोहन पैदा करने के लिए उपयोग होता है। तो आप बैठकर एक पत्थर की मूर्ति को भगवान मानकर अगर सम्मोहन करते रहें, करते रहें, करते रहें, तो मूर्ति भगवान मालूम होने लगेगी। बातचीत भी मूर्ति से हो सकती है, चर्चा भी हो सकती है। हालांकि और किसी को सुनाई नहीं पड़ेगी, सिर्फ आपको ही सुनाई पड़ेगी। लेकिन अगर दो-चार दिन भी अभ्यास छोड़ दें, तो चर्चा बंद हो जाएगी, मूर्ति फिर पत्थर मालूम होने लगेगी। वह जो सम्मोहन था, आपका प्रोजेक्शन था।
नहीं, पत्थर में भी भगवान खोजा जा सकता है। दो ढंग हैं—एक ढंग तो यह है कि मैं पत्थर में भगवान मानूं और आरोपित करूं। तो निरंतर आरोपण करने से पत्थर में भगवान दिखाई पड़ने लगेंगे। वे भगवान मेरे ही कल्पित भगवान हैं, वह सच्चा योग नहीं है। नहीं, मैं पत्थर में भगवान मानूं ही नहीं। मैं तो सिर्फ अपने भीतर चित्त को विचारों से खाली करूं, खाली करूं, खाली करूं और वह घड़ी ले आऊं, जब कि चित्त बिलकुल दर्पण की तरह शून्य हो जाए। पत्थर सामने होगा। भगवान उसमें प्रकट हो जाएंगे।
लेकिन यह भगवान मेरे कल्पित नहीं होंगे। क्योंकि कल्पना करने वाला चित्त और विचार तो मैं . छोड़ चुका। कल्पना करने वाला मन तो मैं हटा चुका। अब तो वहां पत्थर है और यहां मेरी चेतना है। चेतना और पत्थर का मिलन हो जाए, तो पत्थर भगवान हो जाता है। लेकिन बिना चेतना के मिलन के, मन के ही आधार पर अगर मैं निरंतर चिंतन करता रहूं, मनन करता रहूं, अभ्यास करता रहूं कि यह मूर्ति भगवान है, भगवान है, भगवान है, ऐसा दोहराता रहूं, दोहराता हूं, दोहराता रहूं, तो एक दिन मैं वह भ्रांति पैदा कर लूंगा जिस दिन मूर्ति भगवान हो जाएगी।
पत्थर में भगवान प्रकट होते हैं, लेकिन उस आदमी के लिए, जिसका मन गिर जाता है। और जो मन से ही पत्थर में भगवान प्रकट करता है, वह झूठा योग है।
तो ऋषि कहता है, सच्चा और सिद्ध हुआ योग।
अनुभवित हो, अनुभव से ठहरा हो, जाना हो और फिर भी जरूरी नहीं क्योंकि अनुभव भी काल्पनिक हो सकता है, अनुभव भी झूठा हो सकता है, अनुभव भी स्वप्नवत हो सकता है इसलिए एक शर्त और लगाई, सच्चा। सच्चे का अर्थ यही है, दो तरह की संभावनाएं हैं हमारी। अगर हम मन से सत्य की तरफ चलें, तो जो भी होगा वह सच्चा नहीं, झूठा होगा। अगर हम मन को छोड़कर चलें, तो जो भी होगा वह सच्चा होगा। सत्य योग का अर्थ है, मन से साधा गया नहीं, मन के विसर्जन से पाया गया। झूठे योग का अर्थ है, मन से ही साधा गया। मन के पार कुछ भी पता नहीं।
उस आत्मस्वरूप के बिना अमरपद नहीं है। और वह जो सच्चा और सिद्ध हुआ योग है, उससे
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