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________________ स्वप्न-सर्जक मन का विसर्जन और नित्य सत्य की उपलब्धि ये सारी व्याख्याएं हैं। और एक दफा फैशन बदल जाए, तो व्याख्याएं बदल जाती हैं। अभी पूरब में सफेद चमड़ी का भारी मोह है कि सफेद चमड़ी बड़ी सुंदर चमड़ी है। पश्चिम में सफेद चमड़ी बहुत है। तो जो बहुत ज्यादा है, उसका मूल्य तो होता नहीं, न्यून का मूल्य होता है हर समय। जो कम है, उसका मूल्य होता है। तो पश्चिम में सुंदरी वह है, जो चमड़ी पर थोड़ी सी श्यामलता ले आए। तो सुंदरियां लेटी हैं समुद्रों के तट पर, धूप ले रही हैं। थोड़ा सा चमड़ी में श्यामवर्ण प्रवेश कर जाए। बड़ा कष्ट धूप में लेटकर उठा रही हैं। लेकिन कष्ट नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि मन कह रहा है, सौंदर्य पैदा हो रहा है, धूप से सौंदर्य आ रहा है। __ जिस चीज में मन रस ले ले, वहां सौंदर्य मालूम पड़ने लगता है, सुख मालूम पड़ने लगता है। जिसमें विरस हो जाए, वहां तकलीफ शुरू हो जाती है। फैशन के बदलने के साथ सब बदल जाता है। ___ ऐसी कौमें हैं, जो स्त्रियों का सिर घुटवा देती हैं। वे कहती हैं, घुटा हुआ सिर बहुत सुंदर है। वे कहती हैं, जब तक सिर घुटा न हो, तब तक स्त्री के चेहरे का पूरा सौंदर्य पता ही नहीं चलता, बाल की वजह से सब ढंक जाता है। असली सौंदर्य तो तभी पता चलता है, जब सिर घुटा हुआ हो, साफ-सुथरा हो. स्वच्छ। बाल भी कहां की गंदगी। तो स्त्रियां सिर घटाती हैं। ऐसी कौमें हैं. जो मानती हैं. बिना बाल के सौंदर्य नहीं हो सकता, तो स्त्रियां विग लगाती हैं, झूठे बाल ऊपर से लगा लेती हैं। इस वक्त विग का बड़ा धंधा है पश्चिम में, क्योंकि बाल! . हमारी मौज है, हमारे मन का ही सारा खेल है। जैसा हम पकड़ लें, बस वैसा ही मालूम होने लगता है। ऋषि कहता है, इस मन पर अंकुश रखना पड़े, इस मन को धीरे-धीरे विसर्जित करना पड़े और वह क्षण लाना पड़े, जहां हम कह सकें, अब कोई मन नहीं। इधर रह गई चेतना, उधर रह गया सत्य। जहां मन नहीं, चेतना और सत्य का मिलन हो जाता है। वहीं आनंद है। और वहीं नित्य की प्रतीति और अनुभूति है। आज इतना ही। अब हम ध्यान की तैयारी में जाएंगे। दो-तीन बातें खयाल में ले लें। मन को फेंक डालना है पूरा-अंकुशो मार्गः। लेकिन मन तभी फेंका जा सकता है, जब आप पूरी त्वरा और पूरी शक्ति से उसको फेंकने में लगें। दस मिनट श्वास ऐसी लेनी है कि सारे शरीर का रो-रोआं शक्ति से भर जाए और नाचने लगे। फिर दस मिनट नृत्य, नाचना-कूदना, आनंदित होना। वह भी ऐसा करना है कि बिलकुल पागल-पागल से कम में नहीं चलेगा। फिर दस मिनट हू की हुंकार। वह भी ऐसी करनी है कि पूरी घाटी भर जाए हुंकार से। _और दूर-दूर फैल जाएं। जितने दूर फैल जाएंगे उतना सुखद है। और जिन लोगों को पता है कि वे तेजी से दौड़ते हैं, वे बिलकुल पीछे चले जाएं। दूसरों को धक्का देना उचित नहीं है। फिर पीछे लगे तो बात अलग, पर पहले से तो इंतजाम ऐसा करें कि दूसरे को कोई बाधा न पहुंचे। 1537
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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