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________________ निर्वाण उपनिषद पहुंचते हैं जगत के पास, विद कंसेप्शंस, और उन धारणाओं के पर्दे में से देखते हैं। फिर जगत वैसा ही दिखाई पड़ने लगता है, जैसा धारणाएं उसे बताती हैं कि वह है। ___ अगर उसे देखना है-अस्तित्व को, सत्य को, जैसा है, तो शून्य होकर जाना पड़े, मौन होकर जाना पड़े। खाली होकर जाना पड़े, नग्न होकर जाना पड़े। सारे वस्त्र धारणाओं के त्याग कर देने पड़ें। सारे वस्त्र विचारों के अलग कर देने पड़ें। निर्विचार और मौन और शून्य जो खड़ा हो जाता है, वह सत्य के अनुभव को उपलब्ध हो जाता है-उस सत्य के, जो नित्य है, जो शाश्वत है, सनातन है। . और अंतिम सूत्र में ऋषि इसमें कहता है, अंकुशो मार्गः। और अंकुश ही मार्ग है। किस बात पर अंकश? इस मन पर—जो फैलाव करता है. जो प्रक्षेपण करता है—इस पर अंकश ही मार्ग है। इस मन को रोकना, इस मन को ठहराना, इस मन को न चलने देना, इस मन को गतिमान न होने देना, इस मन को सक्रिय न होने देना ही मार्ग है। बड़े छोटे सूत्रों में बड़ी अमृत सूचनाएं हैं। अंकुशो मार्गः। इतना छोटा सा, दो शब्दों का सूत्र। इस मन पर, यह जो स्वप्नों को जन्माने वाला हमारे भीतर छिपा हुआ मन है, इस पर अंकुश ही मार्ग है। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे इस मन को विसर्जित कर देना ही सिद्धि है। एक झेन फकीर हुआ लिंची। जब वह अपने गुरु के पास गया तो उसने कहा, मैं मन को कैसा बनाऊं कि सत्य को जान सकूँ? तो गुरु बहुत हंसने लगा। उसने कहा, मन को तू कैसा भी बना, सत्य को तू न जान सकेगा। तो उसने पूछा कि क्या मैं सत्य को जान ही न सकूँगा? गुरु ने कहा, यह मैंने नहीं कहा। सत्य को तू जान सकेगा, लेकिन कृपा कर मन को छोड़। नो माइंड इज़ मेडिटेशन। मन का न हो जाना ध्यान है। तू मन को बनाने की कोशिश मत कर कि ऐसा बनाऊं, अच्छा बनाऊं, बुरा बनाऊं। यह. रंग दूं, वह रंग दूं। साधु का बनाऊं, संत का बनाऊं। किसका मन बनाऊं? मन से नहीं होगा, क्योंकि मन कैसा भी होगा, तो प्रक्षेपण करेगा। अच्छा मन अच्छे प्रक्षेपण करेगा, बुरा मन बुरे प्रक्षेपण करेगा। लेकिन प्रक्षेपण जारी रहेगा। प्रोजेक्शन जारी रहेगा। मन ही न हो, तो हमारे और जगत के बीच, हमारे और सत्य के बीच जो-जो जाल है, वह तत्काल गिर जाता। हम वही देख पाते हैं, जो है। जिसे मैं ध्यान कह रहा है, वह भी नो माइंड, अ-मन, वह भी मन को फेंक देना है, हटा देना है। अंकुशो मार्गः। अंकुश से ही यात्रा शुरू करनी पड़ेगी पहले तो, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे। वृक्ष के पास खड़े हैं, वृक्ष को देखें सब धारणाओं को छोड़कर। न तो मन को कहने दें, बड़ा सुंदर है, क्योंकि वह पुरानी धारणा है, उसको बीच में मत आने दें। न मन को कहने दें कि यह क्या कुरूप सा वृक्ष है। मन को न कहने दें। मन को कहें कि तू चुप रह, तू मौन रह, मुझे वृक्ष को देखने दे। तू बीच में मत आ। बैठे हैं, धप पड़ रही है। मन कहेगा, बड़ी तकलीफ हो रही है। मन को कहें कि त चप रह। मझे जरा धूप को अनुभव करने दे कि क्या हो रहा है। मन कहेगा, बड़ा आनंद आ रहा है धूप में। तो कहना, तू जरा चुप रह, तू बीच में मत आ। धूप और मुझे सीधा मिलने दे। और तब बड़े फर्क पड़ेंगे। तब धूप में एक और ही बात शुरू हो जाएगी। तब धूप जैसी है, वैसी ही अनुभव में आएगी। तब यह बीच में मन व्याख्या न करेगा। 7152
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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