________________
निर्वाण उपनिषद
हैं। और प्रोजेक्शन उलटे भी होते हैं। सांपों में भी रस्सी देखी जा सकती है। तुलसीदास की कहानी तो हम सबको पता है। ऐसा नहीं कि हम रस्सी में ही सांप देखते हैं, हम सांप में भी रस्सी देख लेते हैं। वक्त-वक्त की बात है। मन के प्रक्षेपण का सवाल है। और तुलसीदास भागे हुए चले जा रहे हैं पत्नी से मिलने । तीन दिन हो गए हैं, तीन दिन से नहीं मिले हैं, बड़े बेचैन हैं।
तो कथा कहती है कि नदी में उतर गए। बाढ़ की आई हुई नदी, वर्षा के दिन । एक लाश का सहारा लेकर, जो नदी में बह रही थी, पार हुए। यह सोचकर कि कोई लकड़ी का टुकड़ा बहा जा रहा है, इसके सहारे पार हो गए। लाश दिखाई न पड़ी होगी! पानी में सड़ गई लाश से दुर्गंध न आई होगी! पत्नी की सुगंध इतनी भरी होगी नाक में कि लाश की दुर्गंध बाहर रह गई होगी! पत्नी से मिलने की आतुरता इतनी तीव्र रही होगी कि क्या है हाथ में, इसे देखने की फुर्सत न मिली होगी! सामने के दरवाजे से तो जा न सकते थे, क्योंकि अभी तीन ही दिन तो पत्नी को अपने मायके गए हुए थे, लोग क्या कहते? पीछे के रास्ते से मकान में घुसे। देखा रस्सी लटकी है। पकड़ा और चढ़ गए। वह रस्सी नहीं थी, सिर्फ सांप लटकता था।
लेकिन मन कल्पना करता ही है। कल्पना ही मन की क्षमता है। इसलिए मन से कभी सत्य नहीं जाना जा सकता, केवल कल्पनाएं ही की जा सकती हैं। इस मन के द्वारा जो भी हम जानते हैं, वह रस्सी में देखे गए सर्प की भांति है। इसलिए जो नहीं है, वह दिखाई पड़ता है। जो नहीं है, वह सुनाई पड़ता है। जो नहीं है, उसका स्पर्श होता है। और हम जीए चले जाते हैं अपने ही भ्रमों को पाल-पोसकर, अपने चारों तरफ अपना ही भ्रम जाल खड़ा करके हम जीए चले जाते हैं। सत्य से हमारा कोई संबंध नहीं हो पाता।
ऋषि कहते हैं, संन्यासी तो उसकी खोज पर निकला है जो है, वह नहीं जो उसका मन कहता है, है। दो में से एक ही चुनना पड़े। अगर जो है, दैट व्हिच इज़, उसे जानना है, तो मन को छोड़ना पड़े। और अगर मन को पकड़ना है, तो कल्पनाओं के जाल के अतिरिक्त कुछ भी कभी नहीं जाना जाता।
विष्णु, ब्रह्मा आदि सैकड़ों नाम वाला ब्रह्म ही लक्ष्य है।
लक्ष्य है सत्य । उसे ही पाना है, जो है। क्योंकि जो है, उसे पाकर ही दुख का विसर्जन है, चिंता का अंत है, पीड़ा की समाप्ति है, दुख का निरोध है। जो है, उसे जानकर ही मुक्ति है, स्वतंत्रता है। जो है, उसे जानकर ही सत्य के साथ ही अमृत का अनुभव है, मृत्यु की समाप्ति है ।
लेकिन उसे जो है, उसके अनेक नाम हो सकते हैं। होंगे ही। बिना नाम दिए हमारी बात चलनी मुश्किल हो जाती है।
इसलिए ऋषि कहता है कि शताभिधान लक्ष्यम् ।
वह जो अनंत-अनंत नाम वाला है, सैकड़ों नाम वाला है— कोई उसे ब्रह्म कहता, कोई उसे ब्रह्मा कहता, कोई उसे विष्णु कहता, कोई राम कहता, कोई रहीम कहता, कोई कुछ और कहता, कोई कुछ और कहता- वह जो सैकड़ों नाम वाला सत्य है। नाम तो उसका कोई भी नहीं है, इसीलिए तो सैकड़ों नाम हो सकते हैं।
ध्यान रखें, अगर उसका कोई एक नाम हो, तो फिर सैकड़ों नाम नहीं हो सकते। नाम उसका कोई भी नहीं है इसलिए कोई भी नाम से काम चल जाता है। वह तो अनाम है। लेकिन मनुष्यों ने अलग-अलग भाषाओं में, अलग-अलग युगों में, अलग-अलग अनुभवों में बहुत-बहुत नाम उसे दिए हैं। इंगित
150