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स्वप्न - सर्जक मन का विसर्जन और नित्य सत्य की उपलब्धि
किसी दिन खंडहर की तरह पड़ा रह जाएगा। वह मानने को राजी नहीं हो सकता।
मैं पिछले दो-तीन वर्ष पहले मांडू में था। एक साधना शिविर था वहां। पूछा तो पता चला कि मांडू की आबादी सिर्फ छह सौ साल पहले सात लाख थी; और अब, मोटर स्टैंड पर जो तख्ती लगी है, उसमें नौ सौ तेरह । मैं बहुत हैरान हुआ । सात लाख की आबादी का नगर, और सात लाख की आबादी के खंडहर फैले पड़े हैं। एक-एक मस्जिद है, जिसमें दस-दस हजार लोग एक साथ नमाज पढ़ सकें। आज तो दस आदमी भी पढ़ने वाले नहीं हैं। इतनी बड़ी धर्मशालाएं हैं कि दस-दस हजार लोग इकट्ठे ठहर सकें। नौ सौ तेरह आदमी उस बस्ती में हैं ! चारों तरफ खंडहर फैले हुए हैं, लेकिन जो आदमी उस बस्ती में अपना झोपड़ा बना रहा है, वह नहीं देखता कि पीछे बड़े भारी महल का खंडहर पड़ा है। वह इस झोपड़े को इसी रस से बना रहा है कि सदा बना रहेगा ।
जागा हुआ आदमी आपको वे बातें याद दिलाने लगता है, जो दुखद मालूम पड़ती हैं। दुखद इसलिए मालूम पड़ती हैं कि उन बातों समझकर आप जैसे जीते थे, वैसे ही जी नहीं सकते। आपको अपने को बदलना ही पड़ेगा। और बदलाहट कष्ट देती मालूम पड़ती है। हम बदलना नहीं चाहते। हम जैसे हैं, वैसे ही रहना चाहते हैं। क्योंकि बदलने में श्रम पड़ता है और जैसे हैं, वैसे बने रहने में कोई श्रम नहीं है।
ऋषि कहते हैं, जगत अनित्य है। उसमें जिसने जन्म लिया, वह स्वप्न में जन्म लिया, स्वप्न के संसार जैसा, आकोश के हाथी जैसा ।
जैसे कभी आकाश में बादल घिर जाते हैं, आप जो चाहें, बादल में बना लें, चाहे हाथी देख लें । छोटे बच्चे चांद में देखते रहते हैं, बुढ़िया चर्खा कात रही है। आपकी मर्जी, आप जो प्रोजेक्ट कर लें। चाहें तो आकाश में रथ चलते देखें, हाथी देखें, सुंदरियां देखें, अप्सराएं देखें, जो आपको देखना हो । बादलों में कुछ भी नहीं है। आपकी आंखों में सब कुछ है । बादल तो सिर्फ निपट बादल हैं। आप उनमें जो भी बना लें।
पश्चिम में मनोविज्ञान ने इस प्रोजेक्शन, इस प्रक्षेपण के बाबत बहुत सी नई खोजें की हैं। मनोविज्ञान को जो थोड़ा भी समझते हैं, उन्होंने अगर मनोविज्ञान की किताबें देखी हों, तो वहां स्याही के कई धब्बे भी चित्रों में देखे होंगे। मनोवैज्ञानिक उन धब्बों का उपयोग करते वे लोगों को – सिर्फ स्याही के धब्बे, जिनमें कुछ नहीं है, कुछ बनाए नहीं गए, सिर्फ स्याही के धब्बे हैं, जैसे कि ब्लाटिंग पेपर पर बन जाते हैं—वह दे देते हैं मरीज को और उससे कहते हैं, देखो इसमें किसका चित्र है ! मरीज उसमें कोई चित्र खोज लेता है। तो वह उसकी खोज मरीज के बाबत खबर देती है, वह चित्र कुछ नहीं है।
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कहते हैं, मुल्ला नसरुद्दीन भी एक मनोवैज्ञानिक के पास गया। मन बेचैन था, अशांत था। सलाह लेने गया था। तो मनोवैज्ञानिक ने जानना चाहा कि उसकी बेचैनी, अशांति जिस मन से पैदा हो रही है, उसके बीज क्या हैं। तो उसने उसे कई धब्बों के चित्र दिए। एक धब्बे का चित्र दिया, कहा कि जरा गौर से देखो, क्या दिखाई पड़ता है? उसने कहा, एक स्त्री मालूम पड़ती है। रखो। मनोवैज्ञानिक उत्सुक हो गया, क्योंकि रस्ते पर बात पकड़ गई। क्योंकि आदमी की अधिक बीमारी स्त्री, स्त्री की अधिक बीमारी पुरुष । और तो कोई ज्यादा बीमारियां नहीं हैं। पकड़ गया, रस्ते पर है आदमी, ठीक जवाब दिया है। दूसरा ब्लाटिंग पेपर दिया धब्बों वाला। पूछा, क्या है? उसने कहा कि अरे, यह स्त्री तो बिलकुल
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