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स्वप्न-सर्जक मन का विसर्जन और नित्य सत्य की उपलब्धि
भी कहने की ठीक-ठीक हिम्मत नहीं की है कि जगत स्वप्नवत है—जस्ट ए ड्रीम। कहना मुश्किल भी है। कोई भी बता सकता है कि गलत कह रहे हैं आप। एक पत्थर उठाकर आपकी खोपड़ी पर मार दे, तो पता चल जाएगा कि जगत स्वप्नवत नहीं है। इसके लिए कोई बहुत तर्क देने की जरूरत नहीं है। एक पत्थर उठाकर खोपड़ी पर मार देना जरूरी है कि जो आदमी कह रहा था, जगत स्वप्नवत है, वह लट्ठ लेकर आ जाएगा कि आप यह...। खून बहने लगेगा, खोपड़ी में दर्द शुरू हो जाएगा। अगर जगत स्वप्नवत है, तो क्यों परेशान हो रहे हैं?
बड़े हिम्मतवर लोग थे, जिन्होंने कहा, जगत स्वप्नवत है। और कहा तो कुछ जानकर कहा।
दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। पहली बात तो यह कि स्वप्नवत जब हम किसी चीज को कहते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि जो नहीं है। यह गलत है। स्वप्न भी है—ऐज़ मच ऐज़ एनीथिंग। स्वप्न भी है, स्वप्न का भी अस्तित्व है, स्वप्न एक्झिस्टेंशियल है। स्वप्न नहीं है, ऐसा नहीं, स्वप्न भी है। स्वप्न का भी स्थान है। स्वप्न का भी होना है। स्वप्न का नान-एक्झिस्टेंस नहीं है, उसका अन-अस्तित्व नहीं है, वह भी है। __ और स्वप्न की एक खूबी है कि जब वह होता है, तो प्रतीत होता है कि सत्य है। स्वप्न का स्वभाव है कि जब होता है, तो प्रतीत होता है कि सत्य है। कभी आपको स्वप्न में पता चला कि जो मैं देख रहा हूं, वह स्वप्न है? अगर किसी दिन आपको पता चल जाए, तो आप ऋषि हो गए। स्वप्न में पता चलता है कि जो मैं देख रहा हूं, वह सत्य है। हां, स्वप्न टूट जाता है, तब पता चलता है कि वह स्वप्न था। स्वप्न के भीतर कभी पता नहीं चलता कि वह स्वप्न है। अगर पता चल जाए, तो स्वप्न उसी वक्त टूट जाएगा। अगर पता चल जाए, तो स्वप्न उसी वक्त टूट जाएगा। स्वप्न के चलने की अनिवार्य शर्त यही है कि आपको पता चले कि जो आप देख रहे हैं, वह सत्य है। नहीं तो स्वप्न नहीं चल सकता। स्वप्न का प्राण इसमें है कि जो है, वह सत्य है।
जब आप रात स्वप्न देखते हैं—बड़े एब्सर्ड सपने आदमी देखते हैं—बड़े बेहूदे स्वप्न, लेकिन फिर भी शक नहीं आता।
लियो टाल्सटाय ने लिखा है कि मैं एक ही सपना हजार दफे कम से कम देख चुका। जागता हूं, तब मैं कहता हूं, कैसा बेहूदा! यह हो कैसे सकता है! लेकिन जब मैं फिर सोता हूं, फिर किसी दिन वही सपना देखता हूं, तो सपने में बिलकुल याद नहीं रहता। सपने में बिलकुल ठीक मालूम पड़ता है। .
लियो टाल्सटाय ने लिखा है कि मैं एक सपना देखता हूं कि एक बड़ा रेगिस्तान है। और यही सपना बार-बार दोहरता है। उस रेगिस्तान में दो जूते चलते चले जा रहे हैं सिर्फ जूते! पैर नहीं हैं, आदमी नहीं है! और टाल्सटाय कहता है, मैं इतनी दफे देख चुका हूं यह, फिर भी जब देखता हूं, तो वह शक भी नहीं पैदा होता, नो डाउट-बिलकुल ठीक लगता है कि जूते चल रहे हैं। सुबह जागकर बड़ी बेचैनी होती है कि ये जूते चल कैसे सकते हैं, जब आदमी भीतर नहीं है। और मन में बहुत घबड़ाहट भी होती है कि यह मामला क्या है? यह स्वप्न बार-बार दोहरता क्यों है? और वे चलते ही चले जाते हैं, और अंतहीन रेगिस्तान है और वे दो जूते हैं, और कोई भी नहीं है। और वे चलते ही चले जाते हैं। तो टाल्सटाय जब बिलकुल घबड़ा जाता है, घबड़ा जाता है उनको देख-देखकर, तो नींद टूट जाती है। बहुत बार देखने
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