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निर्वाण उपनिषद
हमारी चिंता, मनुष्य की चिंता का मूल आधार यही है कि जो रुक नहीं सकता, उसे हम रोकना चाहते हैं। जो बंध नहीं सकता, उसे हम बांधना चाहते हैं। जो बच नहीं सकता, उसे हम बचाना चाहते हैं। मृत्यु जिसका स्वभाव है, उसे हम अमृत देना चाहते हैं । बस, फिर हम चिंता में पड़ते हैं। एंग्जाइटी, चिंता यही है कि मैं जिसे प्रेम करता हूं, वह प्रेम कल भी ठहरेगा या नहीं ! कल जिसे मैंने प्रेम किया था, वह आज बचा है कि नहीं बचा ! कल जिसने मुझे आदर दिया था, वह आज भी मुझे आदर देगा कि नहीं देगा ! कल जिन्होंने मुझे भला माना था, वे आज भी मुझे भला मानेंगे कि नहीं मानेंगे ! बस, चिंता यही है।
इसलिए जब-जब दुनिया में पदार्थवाद का आग्रह बढ़ जाता है, तो चिंता बढ़ जाती है। पश्चिम अगर आज ज्यादा चिंतित है पूरब की बजाय, तो उसका और कोई कारण नहीं है।
पूरब में परेशानी ज्यादा है- भूख है, गरीबी है, अकाल है, बाढ़ है, सब है । पश्चिम में अकाल भी खो गया, बीमारी भी कम हो गई, उम्र भी लंबी मालूम पड़ती है, धन भी ज्यादा है, सुविधा भी है, स्वास्थ्य भी है, लेकिन चिंता ज्यादा है। होना तो यही चाहिए था कि पश्चिम में चिंता कम हो जाती, पूरब में चिंता ज्यादा होती । गणित से तो यही लगता है कि ऐसा होना चाहिए था । भुखमरी नहीं रही, बीमारी नहीं रही, सुविधा हो गई। कोई आदमी काम न करे, तो भी जी सकता है।
बीस-पच्चीस साल बाद पश्चिम में कोई काम नहीं करेगा, क्योंकि सारे यंत्र आटोमेटिक हुए चले जाते हैं। और प्रत्येक मुल्क, जहां आटोमेटिक यंत्र काम करने लगेंगे, अपने विधान में यह नियम बना लेगा, जैसा हम कहते हैं कि स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है, ठीक बीस साल के भीतर पश्चिम के विधानों में, कांस्टीट्यूशंस में यह सूत्र आ जाएगा कि धन प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है बिना श्रम के। तो जन्मसिद्ध अधिकार होना भी चाहिए। जब धन बहुत होगा, तो उसका क्या मतलब है? और जब धन मशीनें पैदा कर देंगी, तो आदमी बिना श्रम के धन पा सके, यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार हो जाने वाला है।
लेकिन चिंता बढ़ती चली जाती है। और मैं मानता हूं, जिस दिन मशीनें सारा काम ले लेंगी, उस दिन आदमी इस मुश्किल में पड़ जाएगा - कम से कम पश्चिम में – कि उस आदमी को बचाना मुश्किल हो जाएगा। कारण क्या है? कारण एक है कि पश्चिम की दृष्टि पदार्थ पर है, और वह सोचता है
जगत में थिरता मिल जाए। वह थिरता मिल नहीं सकती। वह मिल नहीं सकती, वह असंभव है।
ऋषि कहते हैं, जगत अनित्य है । इसलिए जगत में नित्य को बनाने की चेष्टा पागलपन है। अनित्यता की स्वीकृति समझ है, प्रज्ञा है । और जो व्यक्ति यह जान ले कि जगत अनित्य है, जान ले, सुनकर नहीं, पढ़कर नहीं; अनुभव की पाठशाला से सीख ले कि जगत अनित्य है... । और चारों तरफ पाठशाला खुली है। सब तरफ अनित्यता है और आदमी अदभुत है कि वह नित्य मानकर जी रहा है। कुछ भी नहीं बचता, सब बदल जाता है। फिर भी अंधापन अदभुत है। आंखें हम बंद किए बैठे हैं। जहां चारों तरफ प्रवाह चल रहा है, वहां हम सपने संजोए बैठे हैं बीच में कि सब बच रहेगा, सब बच रहेगा। ऋषि कहा है, आंख खोलो और तथ्य को देखो ।
जगत अनित्य है । उसमें जिसने जन्म लिया, वह स्वप्न के संसार जैसा है।
स्वप्न और जगत को साथ-साथ रखना भारतीय मनीषा की खोजों में से एक है। दुनिया में किसी ने
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