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________________ अखंड जागरण से प्राप्त-परमानंदी तुरीयावस्था जब मैं देखता हूं कि मेरे ही सामने कोई जा रहा है और गड्ढे में गिरेगा, मैं जानता हूं कि नहीं कहा जा सकता गड्डा है, फिर भी मैं चिल्लाऊंगा। फिर भी मैं आवाज दूंगा। कौन जाने, किसी तरह संकेत मिल जाए। और न भी मिले संकेत, तो सुकरात ने कहा है, कम से कम इतनी तो तृप्ति होगी कि मैं चुपचाप नहीं खड़ा रहा था। जो मुझे करना था, वह मैंने किया था। अब अगर परमात्मा की मर्जी नहीं, अस्तित्व का नियम नहीं, तो मेरा कसूर नहीं, मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं। सत्य को जान लेने के बाद एक अल्टीमेट रिस्पांसिबिलिटी, एक आत्यंतिक जिम्मेवारी आदमी पर पड़ जाती है कि उसने जो जाना है, वह कह दे। कोई सुने तो ठीक, न सुने तो ठीक। सुनने वाला समझे तो ठीक, न समझे तो ठीक। जो कहा है, वह कहा जा सके तो ठीक, न कहा जा सके तो ठीक। लेकिन यह बोझ मन पर न रह जाए कि कुछ मैं जानता था, जिसे कोई और भी तलाश रहा था और मैंने उससे कहने का कोई उपाय न किया। ____ और कभी-कभी ऐसा हो जाता है, अगर बुद्धिमान हो कोई दूसरा सुनने वाला, तो नहीं कही जा सकती जो बात वाणी से, वह भी वाणी की असमर्थता और विवशता से कुछ-कुछ समझी जा सकती है। नहीं कही जा सकती जो शब्दों से, शब्दों के पीछे छिपी हुई कहने की आतुरता से, शब्दों के पीछे छिपी हुई करुणा से कहीं हृदय की कोई तंत्री झंकृत हो सकती है। तो ऋषि कहता है, वह वाणी और मन दोनों के अतीत और अगोचर है और दोनों का विषय नहीं है। इसलिए जिसे उसे जानना हो, उसे वाणी के भी पार जाना पड़ता है, मन के भी पार जाना पड़ता है। और उस नए दर्पण को निर्मित करना पड़ता है, जिसका नाम ध्यान है। कहें, विवेक है। जो भी शब्द दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उस विवेक या उस ध्यान को जगाए बिना ऋषियों ने जिन सत्यों की बात कही है, वह हमारे कानों तक ही जाती है, प्राणों तक नहीं। हम उसे सुनते हुए मालूम पड़ते हैं और फिर भी बहरे रह जाते हैं। जीसस बार-बार कहते थे जिनके पास आंखें हों, वे देख लें; जिनके पास कान हों, वे सुन लें। जो भी उनको सुनने आते थे, सभी के पास कान थे। सुनने कान वाले लोग आते हैं। जो भी उनके दर्शन को आते थे. उनके पास आंखें थीं। दर्शन को आंख वाले लोग आते हैं। और आंख वा ने लोगों से ही जीसस का यह कहना कि आंखें हों तो देख लो, कान हों तो सुन लो, बड़ा अजीब है। पर जरा भी गलत नहीं है। कान होने से ही सुना जा सकता अगर सत्य, तो अब तक सभी ने सुन लिया होता। और आंख होने से ही देखा जा सकता सत्य, तो अब तक सभी ने देख लिया होता। आंख और कान तो हमें जन्म से ही मिल जाते हैं। लेकिन एक और फैकल्टी, एक और हमारी अंतःप्रज्ञा की क्षमता जन्म से नहीं मिलती, उसे हमें जन्माना पड़ता है। ___ जन्म से तो हम कहें कि जीने के लिए जो उपयोगी हैं, वे यंत्र हमें मिलते हैं। जानने के लिए सत्य को, जीवन को जानने के लिए जो उपयोगी है, वह यंत्र तो हमें ही सक्रिय करना पड़ता है। वह बीज-रूप हमारे भीतर होता है, लेकिन उसे सक्रिय हमें करना पड़ता है। अन्यथा वह बीज की तरह पड़ा-पड़ा फिर खो जाता है। और जन्मों-जन्मों हमें मिलता है अवसर और हम चूकते चले जाते हैं। वह बीज है ध्यान का, विवेक का। थोड़ा सा ही श्रम, थोड़ी प्रतीक्षा, थोड़ा धैर्य, थोड़ा साहस, थोड़ा 1357
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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