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________________ निर्वाण उपनिषद का तो सवाल ही नहीं है, भीतर भी नहीं सोचता कि दरवाजा कहां है। आंख वाला आदमी, निकलना है— उठता है और निकल जाता है। आप उसको याद दिलाएं, तब शायद उसे खयाल आए कि वह दरवाजे से निकला, अन्यथा दरवाजे का भी खयाल नहीं आएगा। आंख जब देख सकती है, तो सोचने की कोई जरूरत नहीं रह गई । जिसका भी ज्ञान होता है, वहां सोचने की जरूरत नहीं रह जाती। अज्ञान में सोचना चलता है। ज्ञान में सोचना बंद हो जाता है। ऐसा समझें कि अज्ञान के लिए मन उपाय है। अज्ञान के साथ जीना हो, तो मन चाहिए, बहुत सक्रिय मन चाहिए। ज्ञान में जिसे जीना है, ज्ञान जिसे उपलब्ध हुआ, उसके लिए मन की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती। मन बेकार हो जाता है। उसे कचरेघर में डाला जा सकता है। इसलिए भी ऋषि कहते हैं कि वह मन का विषय नहीं है, वह ज्ञान का विषय है। ज्ञान होता है चेतना को, विचार होते हैं मन को । साथ ही ऋषि कहता है, वाणी का भी अविषय है वह । शब्द से भी उसे कहा नहीं जा सकता। इसलिए दूसरे को जतलाने का कोई भी उपाय नहीं । नो वे टु कम्युनिकेट, संवाद करने का कोई उपाय नहीं। गूंगे का गुड़ हो जाता है। जिसे पता चल जाता है, वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है, क्योंकि वह कहना चाहता है किसी को और कह नहीं पाता । हजार-हजार डिवाइस, हजार-हजार उपाय खोजता है कि जिनसे आपको कह दे । फिर भी पाता है कि सब उपाय व्यर्थ हो जाते हैं, कहा नहीं जाता। वाणी का वह अविषय है, क्योंकि वाणी मन की शक्ति है। जिसको मन जान नहीं सकता, उसको मन कहेगा कैसे ? अगर मन जान सकता, तो वाणी कह सकती। इसलिए ध्यान रखें, मन जो भी जान सकता है, वाणी उसे कह सकती है। लेकिन जिसे मन जान ही नहीं सकता, वाणी उसे कहेगी कैसे? वाणी तो मन की ही दासी है। वह मन का ही एक हिस्सा है। इसलिए वाणी उसे कह नहीं पाती। फिर भी उपनिषद तो कहा जाता है। वेद कहे जाते हैं। बुद्ध चालीस वर्ष तक सतत बोलते हैं। जीसस बोल-बोलकर फंस जाते हैं और सूली पर लटकते हैं। सुकरात से अदालत कहती है कि तू अगर बोलना बंद कर दे, तो हम तुझे माफ कर दें । सुकरात कहता है, बोलना कैसे बंद कर सकता हूं? आप फांसी ही दे दें, जहर ही पिला दें, वह चलेगा। बोलना बंद नहीं हो सकता। और यही सुकरात कहता फिरता है कि सत्य बोला नहीं जा सकता, और यही सुकरात बोलने के लिए मरने को तैयार है। मर जाता है, जहर पी लेता है। वह कहता है, बिना बोले रहूंगा कैसे ! बोलूंगा तो ही, यह तो अपना धंधा है। सुकरात का शब्द है यह, सत्य को बोलना तो मेरा धंधा है। इसके बिना मैं जीऊंगा कैसे ? और कहता फिरता है कि सत्य कहा नहीं जा सकता ! अदालत तो कोई गलती आग्रह नहीं कर रही थी । जब सुकरात खुद ही कहता है, सत्य नहीं कहा जा सकता, अदालत क्या बड़ी मांग कर रही थी ? वह यही कह रही थी कि जो नहीं कहा जा सकता, कृपा करके मत कहो । जो कहा ही नहीं जा सकता, उसको कहने के चक्कर में क्यों पड़ते हो ? और कह-कहकर मुसीबत में पड़ते हो ! अदालत तक आ गए हो। सुकरात ने कहा, वह कहा तो नहीं जा सकता, लेकिन उसे कहने से रुका भी नहीं जा सकता। क्योंकि 134 "
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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