SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्वाण उपनिषद मन का अविषय कौन होता है? जो मन के पार है, वह मन का विषय नहीं बन सकता। मन उसे देख सकता है, जो मन के सामने है। मन उसे नहीं देख सकता, जो मन के पीछे है। जैसा मैंने कहा, दर्पण उसे देख सकता है, जो दर्पण के सामने है। दर्पण उसे नहीं देख सकता, जो दर्पण के पीछे है। लेकिन दर्पण नहीं देख सकता दर्पण के पीछे जो है, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि दर्पण के पीछे कुछ भी नहीं है। दर्पण का न देखना अस्तित्व का अभाव नहीं है। सिर्फ दर्पण की क्षमता की सूचना है। मन हमारा दर्पण है जगत के लिए-जस्ट ए मिरर। यह जो चारों तरफ विराट पदार्थ का जगत है, इसे मिरर करने के लिए, इसे दिखाने के लिए, इसका प्रतिबिंब बनाने के लिए मन की फैकल्टी है, मन की इंद्रिय है। मन के अंग हैं फिर। आंख मन का एक द्वार है, जहां से रूप प्रवेश करता है, आकृति, रंग। कान दूसरा द्वार है, जहां से ध्वनि प्रवेश करती है, शब्द। हाथ, नाक, ये सब द्वार हैं। ये पांच इंद्रियां मन के द्वार हैं। मन इनका आधार है। ये मन के एक्सटेंशंस हैं। इनके द्वारा मन बाहर के जगत में जाता और जानता है। जरूरी है। मन की बड़ी उपयोगिता है। लेकिन आंख बाहर देख सकती है, भीतर नहीं। कान बाहर सुन सकते हैं, भीतर नहीं। हाथ बाहर छू सकते हैं, भीतर नहीं। हाथ बाहर ही स्पर्श कर सकते हैं, भीतर नहीं। सब इंद्रियां बाह्य को विषय बना सकती हैं, लेकिन जो भीतर है, उसे विषय नहीं बना सकती हैं। मन के भी भीतर चेतना है। मन के भी पार पीछे चेतना है। वह अविषय है। वह मन के लिए...कोई उपाय नहीं है मन के पास कि उस चेतना को जान सके। और हमारी यही उलझन है। क्योंकि हम जगत में सारी चीजें मन से जान लेते हैं, तो हम सोचते हैं, मन से ही चेतना को, आत्मा को भी जान लेंगे। __कुर्सी को देख लेते हैं हम मन से, चट्टान को देख लेते हैं मन से, दुकान को देख लेते हैं मन से। . गणित पढ़ लेते हैं, भूगोल पढ़ लेते हैं, भाषा पढ़ लेते हैं मन से। विज्ञान के ज्ञाता हो जाते हैं मन से। तो एक भ्रांति पैदा होती है कि शायद, जब सभी कुछ मन से जान लिया जाता है—विश्वविद्यालय में जो भी पढ़ाया जाता है, सभी मन से जान लिया जाता है; कोई आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में वे तीन सौ साठ विषयों को पढ़ाते हैं, जिसमें सभी कुछ आ जाता है; वह सब मन से जान लिया जाता है तो भ्रांति पैदा होती है कि फिर यह आत्मा और परमात्मा मन से न जाने जा सकेंगे। जब मन की इतनी क्षमता है, तो मन सब जान लेगा। और चूंकि मन अपने पीछे की चीजों को नहीं जान सकता है, इसलिए मन कह देता है, जिसे मैं नहीं जान सकता, वह नहीं है। पश्चिम की कठिनाई यही हो गई है। पश्चिम ने मन से बहुत कुछ जाना है, पूरब से बहुत ज्यादा जाना है। पदार्थ में पश्चिम ने बहुत गति की है, बड़े रहस्य खोजे हैं। उसी से मुश्किल खड़ी हो गई है। क्योंकि जब वैज्ञानिक सोचता है कि परमाणु को जान सकता हूं मन से, अनंत दूरी पर जो तारा है, उसकी जानकारी ले सकता हूं मन से, तो यह आत्मा जो इतने पास कहते हैं लोग–मोहम्मद कहते हैं कि गले की जो नस है, कट जाए तो आदमी मर जाता है, आत्मा उससे भी पास है तो जो इतनी पास है, उसे न जान सकेंगे? जान लेंगे। तो मन से वह कोशिश करता है। और जब नहीं जान पाता, तो निष्कर्ष देता है कि आत्मा नहीं है। लेकिन ऋषि कहते हैं, न जानने का कारण यह नहीं है कि आत्मा नहीं है. न जानने का कारण यह V 132
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy