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________________ अखंड जागरण से प्राप्त—परमानंदी तुरीयावस्था अगर प्रयास किया धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, तो किसी दिन अचानक अभूतपूर्व अनुभव होता है-जब कोई को अपने ऊपर उतरते देख लेता है। और ध्यान रहे. जब आप नींद को अपने ऊपर उतरते देख लेते हैं, तो आप नींद में भी जागने में समर्थ हो जाते हैं। क्योंकि फिर क्या बात रही, नींद को हमने देखा, नींद उतर रही है-हम देख रहे हैं, हम जागे हुए हैं। नींद आ गई, उसने सब तरफ से घेर लिया और हम देख रहे हैं, तो हमारे भीतर कोई जागा हआ है। __ लेकिन अभी तो जागने में ही जागने की कोशिश करें। अभी नींद में जागने की कोशिश से कोई फायदा न होगा। जो जागने में ही जागा हुआ नहीं, वह नींद में कैसे जागेगा! अभी जागने में ही जागें। जो भी करते हैं, उसको करते समय होश भी रखने की कोशिश करें। कोई भी काम कर रहे हैं छोटा-मोटा, तो होश साथ में रखने की कोशिश करें। अभी मुझे सुन रहे हैं। तो मैं बोल रहा हूं, आप सुन रहे हैं। तो सारा होश मुझ पर मत रखें। सुनें, लेकिन सुनने वाले का भी खयाल रखें, कोई सुन भी रहा है भीतर। कोई बोल रहा है बाहर, कोई सुन रहा है भीतर। दोनों के बीच शब्दों का आदान-प्रदान हो रहा है। लेकिन बोलने वाले में इतने सम्मोहित न हो जाए, इतने खो न जाएं कि सुनने वाले का पता ही न रहे। क्योंकि असली तो सुनने वाला ही है। उसकी याद बनी रहनी चाहिए। डबल एरोड, चेतना का तीर दोनों तरफ होना चाहिए-इधर बोलने वाले की तरफ, उधर सुनने वाले की तरफ। दोनों तरफ होश रहे। और तब जो आपकी समझ होगी, वह बहुत गहरी हो जाएगी। क्योंकि जब सुनने वाला सोया हुआ है, तो बोलने वाला क्या समझा पाएगा? और अगर सुनने वाला जागा हुआ है, तो बोलने वाला चुप भी रह जाए, तो भी समझा सकता है। ... इसी संबंध में आपको कल के लिए खबर दे दूं कि दोपहर के जो तीस मिनट का मौन है, वह अकारण नहीं है। उस तीस मिनट में मैं आपसे मौन में बोलने की कोशिश कर रहा हूं। तो आप तीस मिनट रिसेप्टिव, ग्राहक होने की कोशिश करें। पंद्रह मिनट कीर्तन, पंद्रह मिनट आपकी जो मौज आए वह और फिर तीस मिनट आप अपने सब द्वार-दरवाजे खोलकर होशपर्वक बैठ जाएं कि कोई आवाज किसी सूक्ष्म मार्ग से आए, तो मेरे दरवाजे बंद न हों। ___तो मैं आपसे मौन में बोलने की कोशिश कल से शुरू करूंगा। आज आपका मौन ठीक जगह पर आ गया। तो कल से आप मौन में सिर्फ अपने को खुला रखें और शांत रहें, तो बिना वाणी के आपसे थोड़ी बात हो सके। सच तो यह है कि जो महत्वपूर्ण है, वह वाणी से नहीं कहा जा सकता, उसे तो मौन में ही कहा जा सकता है। और अगर वाणी का उपयोग भी किया जा रहा है, तो सिर्फ इसीलिए कि किसी तरह आपको वाणी के पार, मौन की क्षमता और मौन में समझने की योग्यता और पात्रता मिल जाए। ऋषि कहता है, विवेक लभ्यम्। विवेक से उपलब्ध होती वह स्थिति। मनोवाग् अगोचरम्। और वह स्थिति मन और वाणी का अविषय है। वह स्थिति, जो विवेक से उपलब्ध होती है, न तो मन से जानी जा सकती है और न वाणी से समझाई जा सकती है। वह इन दोनों के लिए अविषय है। इन दोनों का आब्जेक्ट नहीं है। इसे ठीक से समझ लें। मन और वाणी का अविषय है वह स्थिति। 1317
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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