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अखंड जागरण से प्राप्त—परमानंदी तुरीयावस्था
अर्थ है : आत्म-स्मृतिपूर्वक जीना, सेल्फ रिमेंबरिंग जिसको गुरजिएफ ने कहा है। ___ गुरजिएफ कहता था कि रास्ते पर चलते हो, तो चलते वक्त चलने की क्रिया भी होनी चाहिए और चल रहा हूं मैं, इसे जानने की शक्ति पूरे वक्त सक्रिय होनी चाहिए। देखते हो, तो देखने की क्रिया भी होनी चाहिए और मेरे भीतर छिपा है जो देखने वाला, उसका भी स्मरण बना रहना चाहिए कि मैं देख रहा हूं। देखने की क्रिया हो रही है, इसका भी बोध बना रहना चाहिए। क्रियाओं के जाल के बीच में, केंद्र पर कोई जागा हुआ दीए की तरह चेतना खड़ी रहनी चाहिए और देखती रहनी चाहिए।
विवेक लभ्यम्।
तो ऐसे दीए का जो लाभ है, जो उपलब्धि है, जो फल है, जो परिणाम है, वह तीन गुणों के पार ले जाने वाला है।
हम अपनी क्रियाओं को समझें, तो खयाल में आ जाएगा। कभी रास्ते के किनारे बैठ जाएं और रास्ते पर चलते हुए लोगों को जरा देखें। तो अनेक लोगों को देखेंगे अपने से ही बातचीत किए चलते जा रहे हैं। उनके चेहरे पर हाव-भाव आ रहे हैं। भीतर बहुत कुछ चल रहा होगा। रास्ता पार कर रहे हैं, लेकिन उन्हें पता नहीं कि वे रास्ता पार कर रहे हैं, क्योंकि भीतर चेतना तो किसी और बात में उलझी हुई है।
- मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अधिकतम दुर्घटनाएं, जो सड़कों पर हो रही हैं, वे हमारी मूर्छा का परिणाम हैं। एक आदमी कार चलाए जा रहा है और भीतर खोया हआ है। होश तो नहीं है उसे, खतरा होगा ही। इतने कम होते हैं. यही आश्चर्यजनक है। बहत कम होते हैं. आदमियों को देखते हए खतरे बहुत कम होते हैं, दुर्घटनाएं बहुत कम होती हैं।
* अपने को भी खयाल में लें। जब आप किसी से बात कर रहे होते हैं, तब बात होशपूर्वक करते हैं कि बात अलग चलती रहती है, भीतर कुछ और भी चलता रहता है और बेहोशी बनी रहती है ! हमारी सारी क्रियाएं हम मूर्छा में चलाते हैं। __ अगर विवेक को जगाना है, उस विवेक को, जो लाभ बन जाता है आध्यात्मिक सिद्धि में, तो हमें एक-एक क्रिया के साथ होश को जोड़ना पड़े। भोजन कर रहे हैं, होशपूर्वक करें। होशपूर्वक का क्या अर्थ है? अर्थ कि कौर भी उठाएं तो हाथ ऊपर उठे, तो भीतर चेतना जाने कि अब हाथ ऊपर उठता है। कौर बांधे, तो चेतना जाने कि अब कौर बंधता है। मुंह में कौर जाए, चबाएं, तो चेतना जाने कि अब मैं चबा रहा हूं। छोटे से छोटा काम भी हो तो चेतना के जानते हुए हो। चेतना के अनजाने न हो पाए कोई काम। __ कठिन है, बहुत कठिन है। एक सेकेंड भी होश से भरे रहना बहुत कठिन है। लेकिन प्रयोग से सरल हो जाता है। छोटे-छोटे प्रयोग करते रहें।
खाली बैठे हैं, आंख बंद कर लें, श्वास को ही देखते रहें कि श्वास का होश रखूगा। आप बहुत हैरान होंगे कि एकाध सेकेंड होश नहीं रहता और दूसरी बात पर चला जाता है। श्वास भूल जाती है। फिर होश को लौटा लाएं, फिर श्वास को देखने लगें। घूमने निकले हैं, ध्यानपूर्वक कदम रखें-कि जानता रहूंगा, बायां पैर उठा, दायां पैर उठा; बायां पैर उठा, दायां पैर उठा। कहने को नहीं कह रहा हूं कि जब बायां उठे, तो आप भीतर कहें, बायां उठा और जब दायां उठे तो कहें, दायां उठा। अगर आप इस कहने में लग गए, तो पैर का होश खो जाएगा। आप इसमें लग जाएंगे।
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