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निर्वाण उपनिषद
खाली दर्पण न देखा हो, तो क्या उसे पता चलेगा कि इस भीड़ की जो तस्वीरें निकलती हैं, इसके अलावा भी दर्पण कुछ है? कैसे पता चलेगा? वह जानेगा कि दर्पण इस भीड़ का नाम है, जो गुजरती रहती है। उसे दर्पण का कभी पता नहीं चलेगा। दर्पण का पता तो तभी चल सकता है, जब दर्पण खाली हो और भीड़ न गुजर रही हो। भीड़ में दब जाता है। इसे छोड़ें, और आसान होगा समझना।
फिल्म देखने गए हैं आप। पर्दा दिखाई नहीं पड़ता, जब तक फिल्म चलती रहती है। पर्दा दिखाई कैसे पड़ेगा, आवृत्त है, फिल्म दौड़ रही है, चित्र दौड़ रहे हैं। और बड़े मजे की बात है कि पर्दा चित्रों से ज्यादा वास्तविक है। लेकिन जो ज्यादा वास्तविक है, वह चित्रों में दब गया है। और चित्र कुछ भी नहीं है, सिर्फ धूप-छांव है। सिर्फ छाया और प्रकाश का जोड़ है। लेकिन तब तक न दिखेगा पर्दा आपको, जब तक द एंड न हो जाए, चित्र बंद न हो जाए। चित्र बंद हो, तो आप चौकेंगे कि फिल्म तो झूठ थी, झूठ के पीछे एक अलग सच्चाई थी। वह पर्दा है सफेद। .
हमारा वह जो चौथा है अंक, वह जो हमारा वास्तविक स्वभाव है, वह जो तुरीय है हमारे भीतर छिपा हुआ, उसका हमें तब तक पता नहीं चलेगा, जब तक हम विचारों की भीड़ और विचारों की फिल्म से दबे रहते हैं। जिस दिन विचार बंद हो जाते हैं, उसी दिन अचानक पता चलता है, मैं विचार नहीं, मैं तो कुछ और हूं। मैं शरीर नहीं, मैं तो कुछ और हूं। मैं मन नहीं, मैं तो कुछ और हूं। इसका तो मुझे पता ही नहीं था।
ऋषि कहता है, जो निद्रा में भी जागकर सोते हैं, ब्रह्म में जिनका आचरण है, विचरण है, परम आनंद में जो स्थिर हैं, वे चौथे को जान लेते हैं, वे तुरीय को पहचान लेते हैं, वे द फोर्थ को जानने वाले हो जाते हैं। वे तीनों गुणों के पार हो जाते हैं।
तीनों गुणों के पार हो जाते हैं, इसका अर्थ है कि अब वे अपना संबंध तीन गुणों से नहीं जोड़ते-सत, रज, तम से नहीं जोड़ते। अब वे जानते हैं कि हम पृथक हैं, भिन्न हैं, और हैं। हर स्थिति में जानते हैं। बढे हो जाएं तो वे जानते हैं कि जो बढा हो गया. वह तीन गणों का जोड है. मैं नहीं। बीमार हो जाएं, तो वे जानते हैं, वह तीन गुणों का जोड़ है जो बीमार हो गया, मैं नहीं। मौत आ जाए, तो वे जानते हैं कि मौत में वही मिट रहा है जो जन्म में जुड़ा था—तीन गुणों का जोड़-मैं नहीं। वे सदा ही अपने को पार, ट्रांसेंड, अतिक्रमण में देख पाते हैं—सदा, हर स्थिति में।
और जब ऐसा अनुभव हो कि हर स्थिति में कोई अपने को तीनों गुणों के पार देख पाए, तो उस अनुभव का सूत्र क्या होगा? कैसे यह अनुभव होगा? तो ऋषि कहता है, विवेक लभ्यम्। ऐसी जो स्थिति है, वह विवेक के द्वारा, अवेयरनेस के द्वारा, होश के द्वारा प्राप्त होती है।
विवेक लभ्यम्।
विवेक से बड़ी भ्रांति समझी जाती है। विवेक से हम जो अर्थ लेते हैं, वह वह लेते हैं अर्थ, जो अंग्रेजी के शब्द डिसक्रिमिनेशन का है। आमतौर से भाषाकोशों में लिखा होता है, विवेक का अर्थ है, भेद करने की बुद्धि-द पावर आफ डिसक्रिमिनेशन। सच में वह परिभाषा या वह अर्थ विवेक का, बहुत ही सीमित अर्थ है और आंशिक अर्थ है।
विवेक का पूर्ण अर्थ है: होश, अमूर्छा, अवेयरनेस। विवेक का अर्थ है : अप्रमाद। विवेक का
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