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________________ निर्वाण उपनिषद मालूम पड़ती है जिससे जुड़ जाता है। दुख भी एक भ्रांति है, जो उसके साथ मालूम पड़ती है, जिससे टूट जाता है। में बुद्ध ने बहुत बार कहा है, बुद्ध ने बहुत बार कहा है कि प्रियजनों के मिलने में सुख है और बिछुड़ने दुख । अप्रियजनों के मिलने में दुख है, बिछुड़ने में सुख । दोनों बराबर हैं। अनुपात तो बराबर है। प्रियजनों के मिलने में सुख है, बिछुड़ने में दुख । अप्रियजनों के मिलने में दुख है, बिछुड़ने में सुख अनुपात तो बराबर है। सुख भी एक तनाव है मन पर, जिसे हम पसंद करते हैं। दुख भी एक तनाव है मन पर, जिसे हम पसंद नहीं करते। सुख का तनाव भी आदमी को रुग्ण कर जाता है, दुख का तनाव भी रुग्ण कर जाता है। क्योंकि दोनों ही मनुष्य को बोझ से भर देते हैं। आनंद अतनाव है, तनावरहित अवस्था है, उत्तेजनाशून्य है, न वहां दुख है, न वहां सुख है। फर्क समझ लें, प्रियजन से मिलने में सुख है, अप्रियजन से बिछुड़ने में सुख है । प्रियजन से बिछुड़ने में दुख है, अप्रियजन से मिलने में दुख है। आनंद कब होगा ? जहां कोई भी नहीं बचता और सिर्फ मैं ही बच रहता हूं, सिर्फ चेतना ही बच रहती है। न किसी से मिलना और न किसी से बिछुड़ना। जहां स्वभाव थिरता आ जाती है, वहां आनंद है। ऋषि कहता है, ऐसे वे परमानंदी हैं। वे परम आनंद में हैं, क्योंकि स्वभाव में जीते हैं, शिव में जीते हैं, प्रभु में जीते हैं, ब्रह्म में जीते हैं। वह जो आत्यंतिक सत्य है, उसमें जीते हैं। बाहर नहीं जीते, भीतर जीते हैं। वह जो भीतर में मूल स्रोत है, उससे जुड़कर जीते हैं। वहां कोई दुख नहीं, क्योंकि वहां कोई सुख नहीं। हमारा तर्क कुछ और है। हम कहते हैं, वहां कोई दुख नहीं, क्योंकि वहां सुख ही सुख है। ऋषि कहते हैं, वहां कोई दुख नहीं, क्योंकि वहां कोई सुख नहीं। जहां सुख ही नहीं, वहां दुख नहीं हो सकता। और जहां दोनों नहीं हैं, वहां जो रह जाता है शेष, वह आनंद है। इसलिए आनंद को स्वभाव कहा है। दुख भी दूसरे से मिलता है और सुख भी दूसरे से मिलता है, यह आपने खयाल किया ? मिलता आपको है, लेकिन मिलता दूसरे से है | सदा दूसरा निमित्त होता है। दुख भी दूसरे से, सुख भी दूसरे से । गाली भी कोई देता है, प्रशंसा भी कोई करता है। आनंद स्वयं से मिलता है, दूसरे से नहीं। दुख भी परतंत्र है, सुख भी परतंत्र है। दूसरा चाहे तो सुख खींच ले और दूसरा चाहे तो दुख खींच । वह दूसरे के हाथ है, आप गुलाम हैं। लेकिन आनंद स्वतंत्र है। वह दूसरे के हाथ में नहीं । उसे दूसरा नष्ट नहीं कर सकता। जो इस भांति जागकर जीता है कि प्रभु में ही उसका विचरण बन जाता है, वह परम आनंद में जीता है। वे तीनों गुणों से रहित हैं। ऐसी अवस्था को उपलब्ध चेतनाएं निर्गुण गुणत्रयम्, तीनों गुणों से रिक्त, मुक्त, अतीत हैं। तीन गुणों से सारा जगत निर्मित है। जो भी निर्मित है, वह तीन गुणों से निर्मित है। यह तीन का आंकड़ा बहुत कीमती है । और सबसे पहले, संभवतः भारत ने ही तीन के इस गणित को खोजा । नाम बदलते रहे हैं, लेकिन तीन की संख्या नहीं बदलती है। 126
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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