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निर्वाण उपनिषद
पत्नी बहुत उदास है और अपनी किसी सहेली से कह रही है कि बहुत मुश्किल हो गई। कल ही मुझे पता चला कि नसरुद्दीन शराब पीता है। सहेली ने पूछा, क्या कल वह शराब पीकर आ गया था? उसकी पत्नी ने कहा, नहीं, कल वह बिना पीए आ गया। नहीं तो पता ही न चलता। शादी के पहले उससे मिलती थी, तब भी वह रोज पीए रहता था। तो मैं समझी कि यही उसका ढंग है। शादी के बाद भी पंद्रह दिन वह पीए रहता था, तो मैं समझी कि यही उसका ढंग है। कल वह बिना पीए आ गया और उलटी-सीधी बातें करने लगा। तब शक हुआ। मैंने पूछा कि क्या शराब पीकर आ गए हो? ऐसी बात तो तुम कभी नहीं करते। उसने कहा, क्षमा करना, आज मैं पीना भूल गया हूं। ___ हमारी नींद इतनी थिर है कि हमें यह पता भी नहीं चलता कि वह नींद है। हमारी बेहोशी हमारे खून और हमारी हड्डियों में भर गई है। जन्मों-जन्मों का सघन अंधकार है भीतर। पता ही नहीं चलता। इसलिए चपचाप जीए चले जाते हैं और इसी को होश कहे चले जाते हैं। यह होश नहीं है. यह केवल जागी हुई निद्रा है। ____निद्रा के दो रूप हैं सोई हुई निद्रा और जागी हुई निद्रा। सोई हुई निद्रा का अर्थ है कि हम भीतर भी सो जाते हैं, बाहर भी सो जाते हैं। जागी हुई निद्रा का अर्थ है, भीतर हम सोए रहते हैं, बाहर हम जाग जाते हैं। ठीक ऐसे ही दो तरह के जागरण भी हैं। जैसे दो तरह की निद्राएं हैं, ऐसे दो तरह के जागरण भी हैं। ___ ऋषि उसी जागरण की बात कर रहा है। वह कह रहा है कि वे जो संन्यस्त हो जाते हैं, वे नींद में भी जागे रहते हैं। उनकी नींद भी प्रभु से ही भरी रहती है। वे कितने ही गहरी नींद में सो रहे हों, उनके भीतर कोई जागकर प्रभु के मंदिर पर ही खड़ा रहता है। वे स्वप्न भी नहीं देखते कोई और। वे विचार भी नहीं करते कोई और, एक में ही रम जाते हैं।
बुद्ध कहते थे, वे ऐसे हो जाते हैं, जैसे सागर का पानी कहीं से भी चखो, और खारा। उन्हें कहीं से भी चखो, वे प्रभु से ही भरे हुए हैं। उनका स्वाद प्रभ ही हो जाता है।
इस सत्र में कहा है. निद्रा में भी जो शिव में स्थित हैं-शिवयोगनिद्रा च खेचरीमद्राच परमानंदी।
वे जो नींद में भी परम शिवत्व में ठहरे हुए हैं और ब्रह्म में जिनका विचरण है। उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, तो ब्रह्म में ही। जगत में नहीं, ब्रह्म में ही। लेकिन हम तो उन्हें जगत में चलते देखते हैं। हमने बुद्ध को चलते देखा है इसी जमीन पर, महावीर को चलते देखा है इसी जमीन पर। यही जमीन है, यहीं उनके भी चरण-चिह्न बनते हैं, इसी मिट्टी में, इसी रेत में, इन्हीं वृक्षों के नीचे उन्हें बैठे देखा। और यह सूत्र कहता है कि वे ब्रह्म में ही विचरण करते हैं।
वे ब्रह्म में ही विचरण करते हैं, क्योंकि जो हमें जमीन दिखाई पड़ती है, वह उन्हें ब्रह्म ही मालूम होती है। और जो हमें वृक्ष मालूम पड़ता है, वह भी उन्हें ब्रह्म की छाया ही मालूम होती है। और जो इस जमीन पर चलता है उनका शरीर, वह भी उन्हें ब्रह्म का ही रूप मालूम होता है। उनके लिए सभी कुछ ब्रह्म हो गया है।
जिसने अपने भीतर झांककर देखा, उसके लिए सभी कुछ ब्रह्म हो जाता है। और जो अपने बाहर ही व्रता रहा, धीरे-धीरे उसके भीतर भी पदार्थ ही रह जाता मालम पडता है। जिसकी दष्टि बाहर है. उसे भीतर भी आत्मा दिखाई नहीं पड़ेगी। जिसकी दृष्टि भीतर है, उसे बाहर भी आत्मा ही दिखाई पड़ती है।
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