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निद्रा में भी जो प्रभु में स्थित हैं।
हम तो जागकर भी पदार्थ में ही स्थित होते हैं। निद्रा की तो बात बहुत दूर है, बेहोशी की तो बात बहुत दूर है। जिसे हम होश कहते हैं, वह भी होश नहीं मालूम पड़ता। क्योंकि उस होश में भी हम पदार्थ के अतिरिक्त और कहीं स्थित नहीं होते। मन दौड़ता रहता है नीचे की ओर। ___ऋषि कहता है, वे जो ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, वे जो ज्ञान की तीर्थ-यात्रा पर निकलते हैं, वे जो स्वयं को जगाते हैं और विवेक में प्रतिष्ठित होते हैं, वे अपनी निद्रा में भी शिव में ही स्थित होते हैं। नींद में भी उनका होश नहीं जाता। ___हमारा तो होश में भी होश नहीं होता। हम तो होश में भी सोए हुए ही होते हैं। हमारे जागरण को जागरण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हम अपने जागरण में ऐसा सब कुछ करते हैं, जो केवल बेहोशी में ही किया जा सकता है। हमारे जागरण को इसलिए भी जागरण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कैसा है यह जागरण जिसमें हमें इसका भी पता नहीं चलता कि मैं कौन हूं। इस जागरण को इसलिए भी जागरण नहीं कहा जा सकता कि कुछ भी पता नहीं चलता कि कहां से मैं आता हूं, कहां मैं जाता हूं, क्या है प्रयोजन इस जीवन का, क्यों है यह जीवन, क्या है यह जीवन! - जैसे चौराहे पर हम किसी से पूछे कि कहां जाते हो और वह कहे, मुझे पता नहीं। और हम पूछे, कहां से आते हो, और वह कहे मुझे पता नहीं। और हम पूछे कि तुम कौन हो और वह कहे, यही तो मैं आपसे पूछना चाहता था। तो उस व्यक्ति को हम क्या कहेंगे? होश में ? जागा हुआ? लेकिन हमारी भी उससे भिन्न हालत नहीं है।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में यात्रा कर रहा था। टिकट चेकर ने उससे टिकट मांगी, तो वह अपनी सब जेबें तलाश गया। उसकी बेचैनी और उसकी पसीने-पसीने हालत को देखकर टिकट चेकर ने कहा कि रहने भी दें। जरूर होगी, जब इतनी उससे खोजते हैं तो जरूर होगी, चिंता न करें। नसरुद्दीन ने कहा कि तुम्हारे लिए चिंता नहीं कर रहा हूं, चिंता अपने लिए है। सवाल यह है कि मैं जा कहां रहा हूं? तुम्हारे लिए चिंता कर ही कौन रहा है! अगर टिकट खो गई, तो पता कैसे चलेगा कि मैं जा कहां रहा हूं।
लेकिन हमारी टिकट खोई ही हुई है। कुछ भी पता नहीं है। हालत हमारी ऐसी है। बेहोशी हमारी इतनी थिर है। होश का हमें कोई पता नहीं, इसलिए बेहोशी का भी पता नहीं चलता, क्योंकि पता हमेशा विपरीत से चलता है। अगर अंधेरा सतत हो और रोशनी कभी देखी ही न हो, तो अंधेरे का पता नहीं चलता। कहीं दीया दिख जाए जला हुआ, तब पता चलता है कि कैसे अंधेरे में हम जीते थे, वह अंधेरा था। अंधेरे को जानने के लिए प्रकाश को जानना जरूरी है। नहीं तो अंधेरे की पहचान नहीं होती।
स्मरण आता है मुझे और कि मुल्ला नसरुद्दीन ने पहली ही शादी की। पंद्रह या बीस दिन हुए होंगे,