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________________ अनंत धैर्य, अचुनाव जीवन और परात्पर की अभीप्सा कर लेता है। दूसरा शिष्य कहता है, ऐसा दानी भी हमने नहीं देखा। कोई भी आ जाए, सदा देने को तैयार था। मुल्ला थोड़ी सी आंख खोलकर फिर आंख बंद कर लेता है। तीसरा कहता है, इतना सेवा से भरा हुआ व्यक्ति हमने कभी नहीं देखा। मुल्ला फिर आंख खोलकर बंद कर लेता है। फिर वे सब चुप हो जाते हैं। कुछ और बचता भी नहीं बताने को। ___ तो मुल्ला कहता है कि एक चीज तुम छोड़े ही दे रहे हो। मुझसे ज्यादा विनम्र आदमी भी कोई नहीं था। विनम्रता में भी अहंकार पुस जाता है। मुल्ला कहता है, मुझसे ज्यादा विनम्र आदमी भी कोई नहीं था, यह भी तो खयाल करो। अब मुझसे ज्यादा विनम्र भी कोई नहीं था, यही तो अहंकार होगा। और क्या अहंकार हो सकता है? दसरे की प्रशंसा सनकर चोट लगती है कि मुझसे भी आगे कोई! इसलिए हम प्रशंसा को कभी मानते नहीं, सुन भी लें, तो भी मानते नहीं। हम जानते हैं कि जरूर कहीं न कहीं कोई ट्रिक होगी, कहीं न कहीं कोई गड़बड़ होगी ही। पता नहीं चला होगा अब तक, लेकिन कहीं न कहीं कोई बात होगी, जो कल पता चल जाएगी और सब राज खुल जाएगा। लेकिन जब कोई निंदा करता है किसी की, तो देखें, हमारे मुंह में कैसा पानी आ जाता है। फिर हम बिलकुल नहीं पूछते कि सच कह रहे हो, झूठ कह रहे . हो, कोई प्रमाण है ? और हम कभी नहीं सोचते कि यह आदमी जो कह रहा है, गलत भी हो सकता है, कभी न कभी पता चल जाएगा कि निंदा गलत थी। नहीं, यह खयाल नहीं आता। निंदा कोई करे, तो हम तत्काल मान लेते हैं। कोई कहे कि फलां व्यक्ति साधु, हम कभी नहीं मानते। हम कहते हैं, पता लगाकर देखेंगे। कोई कहे, फलां आदमी चोर, व्यभिचारी, बदमाश, बिलकुल राजी हैं। बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप, हमें पहले ही पता था। बुराई तो होगी ही, उसमें कोई शक का सवाल ही नहीं है। भलाई संदिग्ध है सदा। संन्यासी के लिए ऋषि कहता है, वे दूसरे की निंदा से रहित हैं। वे ही जीवन-मुक्त हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि संन्यासी के सामने चोर हो, तो संन्यासी उसे चोर नहीं कहेगा। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि व्यभिचारी को संन्यासी व्यभिचारी नहीं कहेगा। अगर संन्यासी व्यभिचारी को व्यभिचारी न कहे, तब तो असत्य होगा उसका वक्तव्य। गलत को गलत न कहे, तो असत्य होगा। फर्क एक पड़ेगा, संन्यासी गलत को ही गलत कहेगा और उसमें कोई रस नहीं होगा उसे। रस नहीं होगा कि तुम गलत हो, तो उसको मजा आ जाए। तुम गलत हो, तो यह गणित की तरह गलत होगा कि दो और दो तीन नहीं होते। इसमें कोई रस नहीं है। संन्यासी भी चोर को चोर ही कहेगा। लेकिन चोर को ही चोर कहेगा और कोई रस नहीं लेगा इस बात में कि तुम चोर हो, तो उसे कोई रस आ रहा है; या तुम्हारे चोर होने से उसके अचोर होने में कोई सुविधा मिल रही है; या तुम्हारे असाधु होने से उसके साधु होने को कोई सहारा मिल रहा है। नहीं, इसमें कोई रस नहीं होगा। वे पर निंदा से मुक्त होते हैं। अ अ है, ब ब है, अंधेरा अंधेरा है, प्रकाश प्रकाश है। जो जैसा है, वैसा उसे देखते हैं। लेकिन कोई रस नहीं है इस बात में। एक फर्क जरूर पड़ता है और वह फर्क यह है 1197
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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