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________________ निर्वाण उपनिषद केंद्र है, वह भोजन से नहीं बनता, वह पानी से नहीं बनता, वह विश्राम से नहीं बनता। वह परमात्मा का ही दिया हुआ है। तो काम-केंद्र के लिए तो हमें रोज अर्जन करनी पड़ती है शक्ति, उसके लिए अर्जन नहीं करनी पड़ती। गिवेन, वह मिली हुई है, वह हमारा स्वभाव है। संन्यासी के लिए वही ऊर्जा का स्रोत है। कुंडलिनी बंधः। वह उसी से जगाता, उसी को जीता। और जब वह शक्ति जग जाती है, तो यह काम-केंद्र का जो छोटा सा झरना है, यह उसमें अपने आप गिर जाता है और कामवासना भी रामवासना में रूपांतरित हो जाती है। ___ध्यान में हम यहां उसकी ही कोशिश कर रहे हैं कि वह कुंडलिनी पर चोट पड़ जाए। जो मैं इतना आग्रह करता हूं कि जोर से श्वास की चोट करें, वह इसीलिए आग्रह करता हं कि उस श्वास की चोट से कंडलिनी के केंद्र का बंद द्वार ट सकता है। जो आपसे कहता हं. दिल खोलकर नाचें और कदें. वह इसीलिए कहता हूं कि उस हलन-चलन में वह जो सोई हुई शक्ति, ऊर्जा है, वह कंपित होकर उठ सके। जो आपसे कहता हूं कि हुंकार करें, हू की आवाज करें पागल की तरह, तो हू की जितने जोर से आवाज होती है, उतने ही सेक्स सेंटर के निकट तक पहुंचती है, जहां कुंडलिनी का केंद्र है, जहां उस पर चोट पड़ती है। श्वास से, शरीर की गति से, ध्वनि से, चोट करते हैं उस पर। वह टूट जाएगी, अगर आप चोट करते ही गए; हैमरिंग जारी रही, तो वह टूट जाएगी। और जिस दिन वह टूटेगी, उस दिन कामवासना तत्क्षण राम की यात्रा पर निकल जाती है। फिर यह शरीर लक्ष्य नहीं रह जाता, साध्य नहीं रह जाता, सिर्फ साधन हो जाता है। जो दूसरों की निंदा से रहित हैं, वे जीवन-मुक्त हैं। परापवाद मुक्तो जीवनमुक्तः। जो दूसरों की निंदा से रहित हैं, वे जीवन-मुक्त हैं। ___ हमारे मन में निंदा का बड़ा रस है। उसका कारण है। असल में जब हम दूसरे की निंदा करते हैं, तभी हमको लगता है कि हम भी हैं। जब हम दूसरे को नीचे गिरा देते हैं, तभी हमको लगता है कि हम ऊंचे हैं। जब हम दूसरे को बुरा सिद्ध कर देते हैं, तभी हमें लगता है कि हम भले हैं। जब हम दूसरे को चोर जाहिर कर देते हैं, तभी हमें लगता है कि हम अचोर हैं। हैं तो हम नहीं, इसलिए दूसरे की तरफ से हमें अपने को सिद्ध करना पड़ता है। जो है अचोर, वह दूसरे को चोर सिद्ध करके अपने को अचोर सिद्ध नहीं करता, वह है। जो ब्रह्मचर्य को उपलब्ध है, वह दूसरे को व्यभिचारी सिद्ध करके अपने को ब्रह्मचारी सिद्ध नहीं करता, वह है। . निंदा में इसीलिए रस है। और प्रशंसा में बड़ी पीड़ा होती है। अगर कोई आपसे आकर कहे कि फलां व्यक्ति बड़ा साधु पुरुष है, धक से चोट लगती है कि ऐसा हो कैसे सकता है! मेरे रहते, और कोई दूसरा साधु पुरुष हो सकता है? जब अभी हम ही जमीन पर मौजूद हैं! __ मुल्ला नसरुद्दीन मर रहा है। आखिरी घड़ी, उसके सब शिष्य इकट्ठे हो गए हैं। आंख बंद किए पड़ा है। मरते क्षण, शिष्य जितनी प्रशंसा कर सकते हैं, कर रहे हैं। एक शिष्य कह रहा है कि ऐसा ज्ञानी हमने कभी नहीं देखा। शास्त्र तो जीभ पर रखे थे। मुल्ला थोड़ी सी आंख खोलकर देखता है और आंख बंद 7118
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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