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अनंत धैर्य, अचुनाव जीवन और परात्पर की अभीप्सा
गहरे में उतरकर देखें, तो कामवासना ही हमारे भीतर चलती रहती है। उसी के लिए हम जीते हैं। सारी उधेड़बुन उसी के लिए है। वही हमारा आचरण है, काम ही हमारा आचरण है।
___ संन्यासी का आचरण राम है। वह भी उठता है सुबह, जैसे आप उठते हैं। लेकिन उसकी अभीप्सा, उसकी अभीप्सा उस परात्पर को पाने के लिए है। वह भी खाना खाता है, लेकिन आप जिस लिए खाना खाते हैं, उस लिए खाना नहीं खाता है। वह इसलिए खाता है कि यह शरीर साधन बन जाए उस परात्पर तक पहुंचने के लिए। वह भी रात सोता है। वह भी शरीर पर वस्त्र ढांक लेता है, सर्दी होती है। धूप होती है, तो छाया में बैठ जाता है। लेकिन सारी बातों के पीछे, सारे आचरण के पीछे एक ही अभीप्सा कि वह परात्पर का दर्शन कैसे हो जाए!
तो कई बार आपको लगता है संन्यासी भी आप ही जैसा खाना खाता, आप ही जैसा उठता, आप ही जैसे कपड़े पहनता, तो फर्क क्या है? फर्क भीतर है, फर्क जीवन के केंद्र पर है। फर्क उस बात में है कि किसलिए? फार ह्वाट ? किसलिए जी रहे हैं? ___अगर संन्यासी को पता चल जाए कि कोई परात्पर नहीं है, कोई है ही नहीं पार; बस यही उठना-बैठना, खाना-कमाना, दुकान, जीवन, मर जाना, तो संन्यासी की दूसरी सांस न चले फिर। बात ही खतम हो गई, बात ही समाप्त हो गई। अगर वह है, तो जीने का कोई अर्थ है। अगर उसे पाया जा सकता है, तो जीवन का कोई प्रयोजन है। अगर उस तक पहुंचा जा सकता है, तो जीवन जीवन है, अन्यथा जीवन मरने की एक लंबी प्रक्रिया के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। . कुंडलिनी बंधः।
संन्यासी की जो शक्ति का मूल स्रोत है, वह कुंडलिनी है। जैसा मैंने कहा, हमारे जीवन की, हमारी चर्या की जो आधारभूत भित्ति है, वह कामवासना है। इसलिए हमारी शक्ति का जो स्रोत है, वह सेक्स सेंटर है, काम-केंद्र है। उसी से हमारी सारी शक्ति आती है। हमारे शरीर में जो ऊर्जा दौड़ती है, वह काम-केंद्र की ऊर्जा है। हमारी आंखों से जो शक्ति देखती है, वह कामवासना है। हमारे कानों से जो शक्ति सुनती है, वह कामवासना है। हमारे हाथों से जो शक्ति स्पर्श करती है, वह कामवासना है। हमारी शक्ति का केंद्र, हमारी शक्ति का मूल स्रोत काम-केंद्र है।
काम-केंद्र के बिलकुल निकट कुंडलिनी का केंद्र है। उसके पास ही एक दूसरा सरोवर भी है। लेकिन उसको हमने छुआ भी नहीं है कभी। वही केंद्र संन्यासी के जीवन का आधार है। वहीं से वह शक्ति पाता है कुंडलिनी को जगाकर ही। वह एक दूसरे शक्ति आयाम में प्रवेश करता है। __ और मजे की बात यह है कि जैसे ही कुंडलिनी जगती है, कामवासना की सारी शक्ति कुंडलिनी के केंद्र पर गिर जाती है और रूपांतरित हो जाती है, ट्रांसफार्म हो जाती है। क्योंकि कामवासना बहुत छोटा सा सरोवर है। बड़ा छोटा सा झरना है। झरना भी ऐसा है कि रोज-रोज उस शक्ति को हमें खाने से, पीने से विश्राम से इकटा करना पडता है। तब वह झरना थोडा सा भरता है बंद-बंद। और मजा है कि हम अजीब पागल हैं, बूंद-बूंद भरते हैं उसको और फिर उसको उलीच देते हैं। फिर उसको भरते हैं, फिर उसको उलीच देते हैं। फिर भरते हैं।
इसके पीछे जो कुंडलिनी का, इससे ही बिलकुल निकट, बिलकुल इसके ही पड़ोस में जो बड़ा विराट
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