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________________ निर्वाण उपनिषद लेकिन सम्राट बहुत बेचैन हुआ। संन्यासी भी बहुत हैरान हुए। एक-दूसरे को देखने लगे कि यह क्या हो गया! यह आदमी तो पागल मालूम पड़ रहा है। एक जूता पैर में पहने था, एक सिर पर सम्हाले था। सम्राट से न रहा गया। थोड़ा ही मौका मिला, तो उसने कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं, इससे बड़ी मुश्किल हो रही है। हम तो बड़ा प्रचार किए कि बहुत महान ज्ञानी आ रहा है। और यह आप क्या कर रहे हैं? इससे खबर पहुंच जाएगी कि पागल हैं। तो बोधिधर्म ने कहा, सिर पर जो रखे हैं, वह तुम्हारे खयाल से; और पैर में जो पहने हैं, वह अपने खयाल से। सिर पर जो रखे हैं, वह तुम्हें याद दिलाने को कि तुम आदमी कैसे हो, तुम मुझको पागल कह रहे हो, और तुम दोनों रखे हो, और हम सिर्फ एक रखे हैं। जूतियों को हम सिर पर रखे हैं, अगर संपत्ति को हम सिर पर रखे हैं। संपत्ति जहां होनी चाहिए, वहां होनी चाहिए। वह पैर का उपयोग है। जीवन की जरूरत हो सकती है, तो उसका उपयोग किया जा सकता है। लेकिन उसे मालिक नहीं बनाया जा सकता। पर भूल इसलिए हो जाती है कि हम मालिक होने जाते हैं और आखिर में गुलाम हो जाते हैं। जो मालिक होने जाएगा, वह गुलाम होने पर समाप्त होगा। ___ इसलिए संपत्ति के मालिक होने जाना ही मत। अपने मालिक हो जाना, संपत्ति गुलाम हो जाती है। इसलिए हम संन्यासी को स्वामी कहते हैं। किसी और का मालिक नहीं, अपना मालिक। और तो उसके पास कुछ है ही नहीं। अपना जो मालिक है, वह स्वामी है। संपत्ति उसके लिए गुलाम है, पादुका है। परात्पर की अभीप्सा ही उनका आचरण है। वह जो पार और पार-बियांड एंड बियांड-वह जो दूर और दूर फैला है और अतिक्रमण कर जाता है हमारी सारी सीमाओं का, उसको पा लेने की प्यास ही उनका आचरण है। वे इस भांति जीते हैं कि उनके उठने में, उनके बैठने में, उनके चलने में, उनके सोने में एक ही प्यास भीतर हृदय में धड़कती रहती है। और एक ही प्यास उनकी श्वास-श्वास में गूंजती रहती है। उनका होना सिर्फ एक ही बात के लिए है कि वह जो परात्पर ब्रह्म है, वह जो पार छिपा हुआ, और पार छिपा हुआ अज्ञात का लोक है, उससे मिलन हो जाए। वही उनका आचरण है। वही उनका चलना, उठना, बैठना, खाना, पीना, ओढ़ना-सब वही है। कबीर ने कहा है कि मेरा ओढ़ना भी राम, मेरा बिछौना भी राम। सोता भी उसी पर, बैठता भी उसी पर। चलता भी उसी पर, चलता भी वही। यह साधारण सा जो हमें आचरण दिखाई पड़ता है, आपने कभी खयाल नहीं किया होगा, किसलिए? आप सुबह क्यों उठ आते हैं रोज? कौन सी आकांक्षा उठने को कहती है, उठो, चलो। क्यों रोज भोजन कर लेते हैं? कौन सी आकांक्षा कहती है कि शरीर को बचाओ? क्यों धन इकट्ठा करते हैं? कौन सी वासना कहती है कि धन के बिना नहीं चलेगा? आपके आचरण का क्या है आधार, क्या है केंद्र? अगर हम एक शब्द में कहें तो काम.सेक्स। उसके लिए उठते हैं. चलते हैं. कमाते हैं. मकान बनाते हैं, धन, यश सब। अगर गहरे में खोजने जाएं, तो बस काम है। आदमी अपने को धोखा दे सकता है, लेकिन आदमी को छोड़ दें थोड़ी देर को, और जानवरों को देखें, और पशु-पक्षियों को देखें, तो कामवासना बहुत स्पष्ट दिखाई पड़ेगी। आदमी धोखा देता है थोड़ा, इसलिए अस्पष्ट हो जाती है। लेकिन 7116
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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