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अनंत धैर्य, अचुनाव जीवन और परात्पर की अभीप्सा
उठा, देखा, सनोलियों में अंगूठी अटकी है।
यह अर्थ है-संपत्ति संन्यासी की पादुका। मगर कोई अंगूठी ले भी जा सकता था। तब कमाल के संबंध में एक नासमझी सदा के लिए शेष रह जाती। लेकिन संपत्ति पादुका ही है। उसकी इतनी भी मालकियत संन्यासी स्वीकार नहीं करता कि इनकार भी करे। क्या करना है इनकार. या क्या करना है हां। मिट्टी है, तो है।
छोड़ने और पकड़ने दोनों में हम संपत्ति को मल्य देते हैं। जब हम कहते हैं, संपत्ति चाहिए, तब भी मूल्य है। और जब हम कहते हैं कि नहीं, हम संपत्ति न छुएंगे, तब भी मूल्य है। संन्यासी के लिए कोई मूल्य ही नहीं है, निर्मूल्य हो गई बात। तुम कहते हो रख जाएं, तो कहता है रख जाओ। मिट्टी को इनकार भी क्या करना। ____ इतनी मालकियत संपत्ति की हो, तो ऋषि कहता है, तब संन्यासी है। पर पहचानना सदा मुश्किल है। क्योंकि एक-एक संन्यासी पर निर्भर करेगा कि वह क्या करे। वह उसकी अपनी निजी अभिव्यक्ति होगी। पर एक बात तय है कि संपत्ति उसके लिए मालकियत नहीं रखती, उसके ऊपर मालकियत नहीं रखती। संपत्ति उसे पजेस नहीं कर सकती।
और ध्यान रखें, हम सबको खयाल होता है कि वी आर द पजेसर्स, हम संपत्ति के मालिक हैं। लेकिन हम भ्रम में हैं। संपत्ति हमारी मालिक हो जाती है। क्योंकि जब आप रात सोते हैं, तो आपके तिजोरी के रुपए, चिंता में रातभर नहीं जगते, सोए रहते हैं। आप जगते हैं। मालिक कौन है ? जब आपके हाथ से रुपया गिर जाता है, तो रुपया नहीं रोता कि मालिक मैं जिसका था, वह कहां गया। इतना भी नहीं रोता। आप रोते हैं। और मालिक आप हैं?
नहीं, जिसकी भी हम मालकियत करने की कोशिश करते हैं, वही हमारा मालिक हो जाता है। द पजेसर इज़ आलवेज द पजेस्ड। जो भी मालिक बनेगा, स्वामित्व ग्रहण करेगा, वह गुलाम हो जाएगा।
- संन्यासी संपत्ति की मालकियत की बात ही नहीं करता। वह कहता है, संपत्ति है कहां? जिसको तुम संपत्ति कहते हो, अगर तुम्हारी शकल देखें तो विपत्ति मालूम पड़ती है। संपत्ति वालों की अगर शकल देखें, तो ऐसा मालूम पड़ता है कि इनके पास विपत्ति है। संपत्ति तो बिलकुल नहीं मालूम पड़ती। संपत्ति तो संन्यासी के पास मालूम पड़ती है। उसकी प्रफुल्लता, उसका आनंद, उसका खिला हुआ फूल जैसा व्यक्तित्व। न कोई चिंता, न कोई फिक्र, न कोई तनाव। संपत्ति तो उसके पास मालूम पड़ती है, पर है उसके पास कछ भी नहीं। और जिनके पास सब कछ है. वे बडी विपत्ति में घिरे मालम पडते हैं।
संन्यासी के लिए, ऋषि कहता है, संपत्ति उसकी पादुका जैसी है।
उसे पता भी नहीं चलता। पैरों में पड़ी है, तो पड़ी है। उसका उपयोग कर लेता है पादुका का, लेकिन कभी उस पादुका को अपने सिर पर रखकर नहीं चलता।
बोधिधर्म हिंदुस्तान से जब चीन गया, तो वह अपनी पादुका को एक को सिर पर रखे था और एक को पैर में पहने हुए था। वह बहुत अनूठा संन्यासी था बोधिधर्म। चौदह सौ वर्ष पहले वह चीन गया भारत से। सम्राट उसके स्वागत को आया था। हजारों भिक्षु इकट्ठे हुए थे, क्योंकि भारत से बुद्ध की हैसियत का आदमी पहली दफा चीन आ रहा था-बोधिधर्म। बड़ा स्वागत का समारोह था।
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