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________________ निर्वाण उपनिषद लेकिन आदमी में एक और अदभुत बात है । सब जरूरतें पूरी हो जाएं, तो भी आदमी तृप्त नहीं होता। एक बड़ी अदभुत जरूरत आदमी में है – ए नीड टु बी नीडेड। दूसरे लोगों को भी उसकी जरूरत मालूम पड़नी चाहिए— कि मैं किसी के काम पड़ रहा हूं, किसी के उपयोग में आ रहा हूं, मेरे बिना बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। सब जरूरतें पूरी हो जाएं, तो भी एक जरूरत भीतर रह जाती है, वह यह है कि मेरी जरूरत भी दूसरों को होनी चाहिए। अगर ऐसा लगे कि मेरी जरूरत किसी को भी नहीं, तो जिंदगी बेकार है। भोजन है, कपड़ा है, नींद है, सब पड़ा रह गया। मेरी कोई जरूरत नहीं । मैं तो जब कोई आदमी आता है कबीर जैसे आदमी के पास और कबीर इंकार कर देते हैं कि नहीं भाई, कुछ न लूंगा, तो वे भी करुणा से ही इंकार कर रहे हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर वे ले लेंगे, तो यह आदमी परेशान जाएगा, हो सकता है रात सो न सके कि कहां के भोगी के पास पहुंच गए। कमाल, कोई ले आता, तो रख लेता । कहता, बड़ी खुशी, रख जाओ। वह भी कृपा और करुणा है। क्योंकि इस आदमी को अगर ऐसा लगे कि कमाल इसके बिना न जी सकेगा, तो भी इसके भीतर एक फूल खिलने का उपाय बनता है। जिंदगी बहुत पहेली है। तो कबीर के शिष्यों ने उड़ाना शुरू कर दिया कि कमाल तो बेईमान दिखता है, कोई संन्यासी नहीं दिखता। काशी का सम्राट एक दिन कबीर के पास आया था, तो शिष्य बड़े बेचैन थे कि कहीं दूसरे झोपड़े में न जाए। तो उन्होंने कहा कि चलिए चलिए, सीधे जल्दी चलिए । पर उन्होंने कहा कि जरा यह कमाल को भी मिल लूं, कबीर का बेटा यहां रहता है। पर उन्होंने कहा, वह आदमी ठीक नहीं है। पैसे पर उसकी बड़ी पकड़ मालूम पड़ती है। सम्राट ने कहा, तो चलें, परीक्षा कर लें। वह गया। हाथ में हीरे की बहुमूल्य अंगूठी थी, लाखों उसके दाम । सम्राट ने वह निकाली और कमाल से कहा कि यह रख जाता हूं। कमाल ने कहा, मर्जी । सम्राट थोड़ा चौंका, इतनी जल्दी! पहले न करना चाहिए, हां करना चाहिए, मना करना चाहिए। इतनी जल्दी ! मन हुआ कि वापस अपनी अंगुली में डाल ले, लेकिन बड़ी बेइज्जती होगी। यह शिष्यों ने ठीक ही कहा था कि यहां मत जाना। अब फंस गए। तो जरा रुका, तो कमाल ने कहा कि रख ही दो, अब रुकते क्या हो ? तो उसने पूछा कि कहां रखें ? कमाल ने कहा, जहां मर्जी हो। तो उसने सनोलियों की झोपड़ी थी, उसमें खोंस दी अंगूठी । नहीं सका होगा। एक दिन, दो दिन बड़ी बेचैनी रही कि कहां उलझ गए! कबीर आदमी अच्छा है। एक पैसा भी दो, तो कहता है कि नहीं, ले जाएं, क्या करेंगे, सब है। यह आदमी कैसा है। पंद्रह दिन बाद नहीं माना मन। वापस गया। देखें कि क्या हुआ उस अंगूठी का ! अब तक तो बिक गई होगी। नाच-गान पता नहीं क्या हो गया होगा। यह आदमी ही ऐसा दिखता है कि जरा रुके तो कहने लगा, रख ही दो, अब ठहरते क्या हो । गया तो कमाल बैठा था। पूछा कमाल ने, फिर ले आए क्या अंगूठी ? आदमी कैसे हो ! अब नहीं सहा गया उससे भी। उसने कहा कि आदमी कैसे हो ! तो कमाल ने कहा, कैसे आए? क्योंकि पिछली दफा अंगूठी लेकर आए थे, तो मैंने सोचा फिर नहीं, उसने कहा, अंगूठी लेकर नहीं आए। यह पता लगाने आया हूं कि अंगूठी कहां है। उसने कहा, तुम जहां रख गए थे वहां देख लो। अगर कोई न ले गया हो, तो वहां होगी। अगर कोई ले गया हो, तो हमने कोई ठेका नहीं लिया था उसकी रक्षा का । सम्राट 114
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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