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________________ निर्वाण उपनिषद आ जाता है कि मैं जानता हूं, तो अज्ञान से भी बदतर स्थिति पैदा होती है। अज्ञान को यह पता रहे कि मैं नहीं जानता, तो अज्ञान विनम्र होता है, कभी न कभी टूट सकता है। अज्ञान को यह खयाल आ जाए कि मैं जानता हूं, तो अज्ञान अहंकार से भर जाता है, अकड़ से मजबूत हो जाता है, टूटना भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए अज्ञानी तो ब्रह्म तक पहुंच भी जाए, पंडित बड़ी मुश्किल से पहुंच पाता है। ब्रह्म-दर्शन ही-उससे कम नहीं-वही उसकी परीक्षा, वही उसका शास्त्र, वही उसका ज्ञान, वही उसका योग-पट्ट, वही उसका प्रमाण, बस वही सब कुछ है। ___ध्यान रखें दर्शन शब्द पर। अंग्रेजी में शब्द है फिलासॉफी। अब तो हम हिंदी से दर्शन को अनुवाद करते हैं, तो फिलासॉफी ही कहते हैं। या फिलासॉफी को हिंदी में अनुवाद करते हैं, तो दर्शन कहते हैं। वह ठीक नहीं है, क्योंकि दर्शन फिलासॉफी नहीं है। फिलासॉफी का मतलब है : विचार, चिंतन, मनन-दर्शन नहीं। दर्शन का मतलब है, देखना। एक अंधा आदमी भी प्रकाश के संबंध में सोच सकता है, सुन सकता है। ब्रेल लिपि में लिखा गया हो, तो पढ़ भी सकता है। एक अंधा प्रकाश के संबंध में खूब चिंतन कर सकता है। और यह भी हो सकता है कि अंधा अगर ठीक और बुद्धिमान हो, तो प्रकाश के संबंध में कोई सिद्धांत भी खोज सकता है; प्रकाश के संबंध में कुछ आविष्कार भी कर सकता है। प्रकाश के संबंध में कुछ ऐसे सिद्धांत निर्मित कर सकता है जो कि प्रकाश की उलझन को सुलझाने में सहयोगी हो जाएं। कोई बाधा नहीं है। लेकिन अंधा दर्शन नहीं कर सकता। दर्शन और ही बात है। विचार तो खोपड़ी तक ही तैरते हैं, दर्शन हृदय तक पहुंच जाता है। और विचार तो सिर्फ छाया मात्र हैं, दर्शन प्रतीति है, अनुभव है। इसलिए जर्मन विचारक हरमन हेस ने सिर्फ पिछले पचास वर्षों में न डा. राधाकृष्णन ने और न विवेकानंद ने और न रामतीर्थ ने, जिन लोगों ने भी भारतीय दर्शन को पश्चिम में पहुंचाने की कोशिश की है, उन्होंने नहीं—एक जर्मन विचारक हरमन हेस ने दर्शन के लिए फिलासॉफी शब्द का उपयोग करने से इंकार किया। और उसने कहा कि मैं नया शब्द गढूंगा, जो कि पश्चिम की भाषाओं में नहीं है। वह शब्द उसने गढ़ा फिलासिया। फिलासॉफी में दो शब्द हैं—फिला और सॉफी। सॉफी का मतलब होता है ज्ञान और फिला का अर्थ होता है प्रेम-ज्ञान का प्रेम। हरमन हेस ने एक नया शब्द बनाया, फिलासिया। फिला का अर्थ होता है, प्रेम और सिया का अर्थ होता है, टु सी-दर्शन का प्रेम। भारत में फिलासॉफी जैसी चीज रही ही नहीं। विचार का प्रेम भारत में नहीं है। भारत में दर्शन की आकांक्षा है। देखे बिना, देखे बिना क्या होगा! कितना ही सुनो, कितना ही समझो, कितना ही कंठस्थ करो, देखे बिना क्या होगा! देखना पड़ेगा-ब्रह्म-दर्शन। तो संन्यासी की अभीप्सा है ब्रह्म-दर्शन। श्रियां पादुकाः। यह बड़ा अदभुत सूत्र है। संपत्ति उनकी पादुका। बड़ा अजीब है। संपत्ति का और संन्यासी से क्या लेना-देना। और सब तो ठीक है, ब्रह्म-दर्शन करो, ठीक है। संपत्ति से संन्यासी का क्या लेना-देना? वही सूचना है इसमें। V112
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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