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________________ अनंत धैर्य, अचुनाव जीवन और परात्पर की अभीप्सा एक क्षण में आप मुकाबला करते हैं चुनौती का, विचार जन्म लेता है। अगर आपने पुरानी स्मृति का ही उपयोग किया, तो विचार नहीं है, आप एक मरे हुए आदमी हैं। संन्यासी जीवंत है, वह प्रतिपल सहज स्फूर्त जीता है। इसका, इसका अर्थ, विचार उसका दंड है। ब्रह्म-दर्शन उसका योग-पट्ट है। ब्रह्म-दर्शन ही उसका सर्टिफिकेट है, उसका प्रमाणपत्र है और कोई भी नहीं। ब्रह्म को देख लेना ही उसकी परीक्षा, ब्रह्म को देख लेना ही उसका परीक्षा-फल, ब्रह्म को देख लेना ही उसका प्रमाणपत्र, ब्रह्म को देख लेना ही उसका योग-पट्ट है। उससे कम पर उसका कोई राजी होने का सवाल नहीं है। ध्यान रहे, ब्रह्मसूत्र पढ़ लेने से नहीं, ब्रह्म के दर्शन से। ब्रह्म के संबंध में शास्त्र पढ़ लेने से नहीं, ब्रह्म के दर्शन से। दर्शन से कम पर संन्यासी राजी नहीं है। इससे कम का कोई सवाल नहीं है। श्वेतकेतु वापस लौटा ज्ञान लेकर, सब शास्त्र पढ़कर। लेकिन पिता ने उससे पूछा, तू सब पढ़ आया, लेकिन वह तूने जाना या नहीं, जिसे जान लेने से सब जान लिया जाता है? श्वेतकेतु ने कहा, यह क्या है? यह तो हमारे कोर्स में नहीं था। यह क्या बला है ? हम सब सीखकर लौटे हैं। ज्योतिष तो हम जानते हैं, आयुर्वेद तो हम जानते हैं, संगीत तो हम जानते हैं, चारों वेद हम जानते हैं, उपनिषद हम पढ़कर आए हैं, ब्रह्म का पूरा ज्ञान लेकर आए हैं। लेकिन यह तो कोई सवाल ही समझ में नहीं आता कि उसको जानकर आए कि नहीं उस एक को जिसको जान लेने से सब जान लिया जाता है और जिसको न जानने से सब जाने हुए का कोई भी मूल्य नहीं है! उस युवक ने कहा कि मैं तो बड़े गौरव से भरकर आ रहा था, बहुत प्रमाणपत्र लेकर आ रहा था और आपने तो सब पानी गिरा दिया। पिता ने कहा, तो तू वापस जा। तू जो बटोर लाया है, वह ज्ञान नहीं है। वह केवल ज्ञान की राख है। बेटे को वापस लौटा दिया। वर्षों बाद बेटा वापस आया। दूर अपनी झोपड़ी की खिड़की से बाप ने देखा कि श्वेतकेतु वापस लौट रहा है। उसने अपनी पत्नी से कहा, पीछे का दरवाजा खोल दे, मैं भाग जाऊं। पत्नी ने कहा, क्या कहते हो! बेटा वापस आ रहा है। उसके पिता ने कहा, लेकिन वह उसे जानकर आ रहा है, जिसे मैंने भी अभी जाना नहीं। वह भी मैंने शास्त्र में पढ़ा था कि उस एक को जान, जिसको जानने से सब जान लिया जाता है। वह भी मैंने शास्त्र में पढ़ा था। और वह लड़का झंझटी है। मैं तो पूछा था ऐसे ही। वह चला ही गया वापस। अब वह जानकर लौट रहा है। उसकी चाल कहती है, उसके आसपास की हवाएं खबर ला रही हैं, उसका चेहरा कहता है, उसकी आंखें कहती हैं। उसके चारों तरफ जो आभामंडल है, वह कहता है। मैं भाग जाऊं, क्योंकि अब उससे पैर छुलाना ठीक न होगा। अब जब तक मैं न जान लूं, तब तक इस बेटे के दर्शन करना ठीक नहीं। भाग गया बाप पीछे के दरवाजे से। ब्रह्म-दर्शन...। उससे कम पर संन्यासी की तृप्ति नहीं है; शब्दों से नहीं, शास्त्र के सिद्धांतों से नहीं, ज्ञान की परीक्षाओं से नहीं। वेद की परीक्षा से कहीं वेद मिलता है? कि वाराणसी में बैठकर संस्कृत के श्लोक कंठस्थ कर लेने से कोई ज्ञान मिलता है? कितने पंडित नहीं हैं? हां, एक अकड़ जरूर मिल जाती है। अज्ञान तो भीतर होता है और पांडित्य अकड़ दे देता है कि मैं जानता हूं। और जब अज्ञान को यह खयाल 1117
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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