________________
निर्वाण उपनिषद
इस आदमी के पास बहुत होंगे। यह अपने बेटे को काफी ज्ञान दे रहा होगा, जो भी मिल जाता होगा उसको सलाह देता होगा। इसलिए हमारे पास दूसरों को देने के लिए बहुत सलाहें होती हैं। खुद पर मुसीबत आए, तब पता चलता है कि सलाह काम पड़ेगी नहीं, क्योंकि हम रिग्रेस कर जाते हैं फौरन । हम उस अवस्था में पहुंच जाते हैं, जिसका हमें पता ही नहीं।
अब यह आदमी पांच साल के बच्चे का व्यवहार कर रहा है। इस वक्त इसकी उम्र पांच साल से ज्यादा नहीं है। इस वक्त इसके भीतर वही हो रहा है, जो पांच साल में इसने सीखा होगा कि जब कोई मुसीबत की बात आ जाए और कुछ करते न बने, तो हाथ-पैर पटककर रोना-चिल्लाना चाहिए। बच्चे के लिए तो ठीक है, क्योंकि पांच साल का बच्चा जब हाथ-पैर पटककर रोता-चिल्लाता है तो वह परिणामकारी है। क्योंकि उसकी मां झुक जाती है, बाप राजी हो जाता है कि खोपड़ी मत खाओ, जो चाहिए वह ले लो। लेकिन अभी कोई बाप नहीं है यहां, कोई मां नहीं है। मकान में आग लगी है।
असहाय जरूर है वह आदमी, वैसा ही जैसा पांच साल का बच्चा होता है । उसको एक खिलौना चाहिए। अब उसके पास कोई उपाय नहीं है, न पैसे हैं, न सुविधा है, वह कहां से लाए। वह चिल्लाता है, रोता है। मां-बाप परेशान हो जाते हैं। इस परेशानी से दो-चार रुपए खर्च करना ज्यादा सस्ता काम है। बार्गेनिंग हो जाती है। एकाध दफे डांटते हैं पहले। वे कोशिश करते हैं, पांच रुपए बच सकें तो बेहतर है। नहीं बचते, फिर राजी जाते हैं। यह बच्चा एक ट्रिक सीख जाता है। इसने एक ट्रिक सीख ली कि अगर कोई ऐसी अवस्था हो जहां कुछ न सूझे करते, वहां रोना-चिल्लाना, पैर पटककर भी काम होता है।
अब यह पचपन साल का आदमी है, मकान में आग लग गई है। अवस्था, परिस्थिति वही आ गई है, अब कुछ करते इसे बनता नहीं। वह पांच साल का बच्चा हो गया है। अब वह चिल्ला रहा है, रो रहा है, पीट रहा है। यह पांच साल में जो कंकड़ उसने इकट्ठे किए थे, पचपन साल में उपयोग कर रहा है।
नहीं, यह विचारपूर्वक नहीं है बात । नहीं तो वह भी सोचेगा, हाथ-पैर पटकने से क्या होगा ! विचार तो हैं उसके भीतर बहुत। अब जब मकान में आग लगी है, तो बहुत ज्यादा होंगे। लेकिन अब किसी काम के नहीं हैं।
विचारपूर्वक होने का अर्थ है, अपने अतीत से निरंतर छुटकारा - डाइंग टु द पास्ट, अपने अतीत के प्रति रोज मरते जाना। स्मृति तो इकट्ठी होगी, लेकिन अपने विचार को अलग रखना और अपनी स्मृति पर भी विचार बनाए रखना।
तो संन्यासी का दंड है विचार । वह चलता है स्मृति से नहीं, टटोलता है स्मृति से नहीं, मार्ग खोजता स्मृति से नहीं, विचार से। जब भी कोई परिस्थिति होती है, वह सदा पुनर्विचार करने को, रिकंसीडर करने को राजी है।
स्वभावतः, संन्यासी को असंगत होना पड़ेगा। अगर मुल्ला नसरुद्दीन संगत है तो संन्यासी को असंगत होना पड़ेगा। परिस्थिति बदल जाएगी, तो विचार बदलना पड़ेगा। नया क्षण होगा, तो नए विचार को जन्म देना पड़ेगा। आदत कहेगी, पुराने से काम चला लो; स्मृति कहेगी, तैयार है; रेडीमेड उत्तर है, दे दो। लेकिन विचार कभी रेडीमेड उत्तर नहीं देता। कोई तैयार विचार, विचार नहीं है, स्मृति है।
विचार सदा स्पांटेनियस है, सहज स्फूर्त, उसी क्षण में पैदा होता है, पूरी चेतना से पैदा होता है ।
110