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निर्वाण उपनिषद
लिया। अगर टिप भी आदतन है और यह भी आदतन है, तो फिर खतरनाक मामला है। ___ हम जीते हैं ऐसे ही। सब जड़ हो जाता है। सब बंध जाता है। एक लीक हो जाती है, उस पर हम चलते हैं। बाहर की जिंदगी में ठीक भी है। काम करना मुश्किल होगा। लेकिन भीतर की जिंदगी में बहुत खंतरनाक है, क्योंकि विचारणा कम होती चली जाती है। इसलिए बच्चे जितने विचारशील होते हैं, बूढ़े उतने विचारशील नहीं होते; यद्यपि बच्चों के पास विचार कम होते हैं और बूढ़ों के पास बहुत होते हैं। ___ इसलिए फर्क को खयाल में ले लें। बूढ़े के पास विचार तो बहुत होते हैं, विचारशीलता कम हो गई होती है। क्योंकि सब विचार उसकी आदत बन गए होते हैं, अब उसे विचार करना नहीं पड़ता। विचार आ जाते हैं। वे नियमित हो गए हैं। बच्चे के पास विचार तो बहुत कम होते हैं, इसलिए विचारशीलता बहुत होती है। फिर धीरे-धीरे विचारों की पर्ते जमती जाएंगी। वह भी कल बूढ़ा हो जाएगा, तब विचार करने की जरूरत न पड़ेगी। विचार रहेंगे उसके पास। जब जिस विचार की जरूरत होगी, वह अपनी स्मृति के खाने से निकालकर और सामने रख देगा।
ध्यान रहे, बूढ़े के पास अनुभव होता है, विचार होते हैं, लेकिन विचारशीलता कम होती चली जाती है। क्योंकि बहुत पत्ते झील पर इकट्ठे हो जाते हैं। बच्चा खाली झील की तरह है जिस पर पत्ते अभी नहीं हैं।
इसलिए अगर बच्चों को ही ध्यान सिखाया जा सके, तो इस जगत में क्रांति हो सकती है, अन्यथा क्रांति नहीं हो सकती। क्योंकि बूढ़े के साथ उलटी मेहनत करनी पड़ती है। जिंदगीभर उसने कचरा इकट्ठा किया है। इकट्ठा करने के पहले ही अगर उसको यह बोध आ जाता कि व्यर्थ इकट्ठा नहीं करना है, या इकट्ठा भी कर लेना है, तो उससे तादात्म्य नहीं करना है; और कितने ही विचार इकट्ठे हो जाएं, . विचारशीलता को मरने नहीं देना है...। ____अपने विचार के प्रति भी तटस्थता का नाम विचारशीलता है। दूसरे के विचार के प्रति तो हम तटस्थ होते ही हैं। अपने विचार के प्रति भी तटस्थता का नाम विचारशीलता है। अपने विचार को भी पुनर्विचार करने की क्षमता का नाम विचारणा है। और प्रतिदिन, आदतवश नहीं, होशपूर्वक। क्योंकि कल का कोई विचार आज काम नहीं पड़ सकता है। सब बदल गया होता है, विचार थिर हो जाता है, जड़ हो जाता है। वह पत्थर की तरह भीतर बैठ जाता है। और जिंदगी तो तरल है, लिक्विड है, वह बदलती जाती है और हम कंकड़-पत्थर भीतर इकट्ठे करते चले जाते हैं।
रमजान का महीना था और मुल्ला नसरुद्दीन ने भी तय किया कि वह भी उपवास कर ले। तो सोचा रोज-रोज हिसाब रखना पड़ेगा, कितने दिन हो गए। उपवास में रखना ही पड़ता है। नहीं तो आदमी मर जाए। आशा लगाए रखता है कि चलो, एक दिन चुका। अब इतने, पंद्रह दिन बचे, अब चौदह दिन बचे-गुजर ही जाएगा, गुजर ही जाएगा। पर इतनी तकलीफ उठाए, कौन हिसाब रखे; तो उसने एक मटकी रख ली और रोज उसमें एक कंकड़ डालता गया। जब भी जरूरत होगी, कंकड़ मिन लेंगे। ___ कोई पंद्रह दिन बीते होंगे उपवास के दिनों के और कोई यात्री राह से गुजरता हुआ, तीर्थयात्रा पर जाता हुआ नसरुद्दीन के द्वार पर रुका। और नसरुद्दीन से उसने पूछा कि मैं जरा भूल गया हूं, रमजान के कितने दिन निकल गए? तो नसरुद्दीन अपनी मटकी लाया। थोड़ा डरा भी, जब मटकी उसने उलटाई।
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