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निर्वाण उपनिषद
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मरते वक्त फिर वही पीड़ा थी। कि अब वह उतर आता है स्टेशन पर, कोई लेने नहीं आता। रास्ते से गुजरता है, कोई खयाल नहीं करता। जब मरने की खबर सुनी, तभी अनेक लोगों ने कहा, अरे, वोल्तेयर अभी जिंदा था! हम तो समझते थे कि कभी का मर चुका होगा। बहुत दिनों से नाम नहीं देखा, सुना नहीं। ___ जो भी हो जाए, उसी से मन दूसरे पहलू पर लौटने लगता है। यश मिल जाए, तो यश से परेशानी हो जाती है। यश न मिले, तो न मिलने से परेशानी होती है। धन मिल जाए, तो परेशानी देता है, धन न मिले, तो परेशानी होती है। इस संसार में ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जो दोनों हालत में परेशानी न दे।
और उसका कारण है कि मन सदा द्वंद्व में जीता है। एक को चुना कि दूसरा भी तैयार हो गया। जब यह थक जाएगा, तो दूसरा ऊपर आ जाएगा।
उदासीन का अर्थ है, चुनाव ही नहीं। इसलिए उदासीन धन्यभागी है, क्योंकि उदासीन दुखी नहीं हो सकता। वह जो आस्कर वाइल्ड ने दो विकल्प कहे, वह दोनों ही विकल्प नहीं चुनता। वह कहता है, हम मन का कोई भी विकल्प नहीं चुनते। हम मन में चुनाव ही नहीं करते। हम कहते हैं, मन, तुझे जो करना है, सोच। हम दूर ही खड़े हैं। हम तुझे न चुनेंगे। न यह, न वह। न पक्ष, न विपक्ष। हम तटस्थ हैं! ___ उदासीनता बड़ी अदभुत शांति है। क्योंकि जब आप मन का चुनाव ही नहीं करते, तो धीरे-धीरे दोनों द्वंद्व मर जाते हैं। चुनाव से ही जीते हैं, आपके सहयोग से ही जीते हैं। दोनों धीरे-धीरे सूख जाते हैं, उनको जल मिलना बंद हो जाता है। और जिस दिन मन का द्वंद्व सूख जाता है, उसी दिन मन भी सूख जाता है।
इसलिए कहा ऋषि ने, उदासीनता उनकी लंगोटी है। वे प्रतीक की तरह बात कर रहे हैं, ताकि खयाल में आ जाए कि क्या है संन्यासी का रूप। विचार उनका दंड। विचार दंडः।।
उनके हाथ की जो लकड़ी है, वह विचार। लेकिन यहां विचार से थोड़ा समझ लें। विचार एक बात है और विचारों की भीड़ बिलकुल दूसरी बात है। अगर एक विचार हो, तो हाथ की लकड़ी बन सकता है और अगर बहुत विचार हों, तो हाथ की लकड़ी नहीं बनता, फिर सिर पर लकड़ी का गट्ठर बन जाता है। फिर वह सहारा नहीं रहता. बोझ हो जाता है। विचारों में नहीं है संन्यासी. विचार।
एक तो फर्क यह समझ लें कि हम सदा विचारों में होते हैं, विचार में नहीं। हमारे भीतर एक भीड़ होती है विचारों की। निर्जन, एकांत, अकेला विचार हमारे भीतर कभी नहीं होता। असंगत भीड़ होती है। एक से दूसरे पर छलांग लगाते रहते हैं। विपरीत भीड़ होती है। एक विचार यह और उसका उलटा भी वहीं मौजूद होता है, उसके पीछे ही खड़ा होता है। अनेक विचार साथ ही खड़े रहते हैं। वही तो हमारी विक्षिप्तता है, पागलपन है, इनसेनिटी है। ___इतने विचारों के बीच हम सिर्फ दब जाते हैं। और जब विचार का आधिक्य हो जाता है, तो विवेक क्षीण हो जाता है। जैसे आकाश बदलियों में दब जाए, या किसी झील पर पत्ते ही पत्ते फैल जाएं और झील का जल दिखाई पड़ना बंद हो जाए, ऐसे ही हमारे भीतर जो विवेक है, चेतना है, वह विचारों की पर्तों में दब जाती है। उसका हमें फिर पता ही नहीं चलता। बहुवचन में विचार नहीं-नाट थाट्स।
विचार दंड है। संन्यासी अपनी चेतना के समक्ष एक विचार से ज्यादा को एक साथ नहीं आने देता। क्योंकि एक
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