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निर्वाण उपनिषद
वह तब निकालता है जब उसके पास अतिरिक्त समय हो, जो धन की खोज से बच जाता हो। छुट्टी का दिन हो, अवकाश का समय हो, तो। और फिर वह चाहता है, बस जल्दी निपट जाए। वह जल्दी निपट जाने की बात ही यह बताती है कि ऐसी कोई चाह नहीं है कि हम पूरा जीवन दांव पर लगा दें।
और ध्यान रहे. विराट तब तक उपलब्ध नहीं होता. जब तक कोई अपना सब कछ समर्पित करने को तैयार नहीं होता। और सब कुछ समर्पित करना भी कोई बारगेन नहीं है, कोई सौदा नहीं है। नहीं तो कोई कहे कि मैंने सब कुछ समर्पित कर दिया, अभी नहीं मिला। अगर इतना भी सौदा मन में है कि मैंने सब समर्पित कर दिया तो मुझे प्रभु मिलना चाहिए, तो भी नहीं मिल सकेगा। क्योंकि हमारे पास है क्या जिससे हम प्रभु को खरीद सकें? क्या छोड़ेंगे आप? छोड़ने को है क्या आपके पास? आपका कुछ है ही नहीं, जिसे आप छोड़ दें। सभी कुछ उसी का है। उसी का उसी को देकर सौदा करेंगे? ___ है क्या हमारे पास? शरीर हमारा है, जमीन हमारी है, ज्ञान हमारा है, क्या है हमारे पास? और हो सकता है, धन भी हमारा हो, जमीन भी हमारी हो, लेकिन एक बात पक्की है कि भीतर गहरे में वह जो हमारे छिपा है, वह हमारा बिलकुल नहीं है। क्योंकि न तो हमने उसे बनाया है, न हमने उसे खोजा है, न हमने उसे पाया है। वह है।
तो धन तो हो भी सकता है आपका हो, लेकिन आप अपने बिलकुल नहीं हैं। क्योंकि कह सकते हैं. धन मैंने कमाया। लेकिन यह जो भीतर दीया जल रहा है चेतना का, यह तो प्रभ का ही दिया हआ है। आपका इसमें कुछ भी नहीं है। आप अपने बिलकुल नहीं हैं, इसलिए देंगे क्या?
मारपा, तिब्बत का एक बहुत अदभुत ऋषि जब अपने गुरु के पास पहुंचा, तो उसके गुरु ने कहा, तू सब दान कर दे। मारपा ने कहा, लेकिन मेरा अपना कुछ है कहां? गुरु ने कहा, तो कम से कम तू . अपने को समर्पित कर दे। तो मारपा ने कहा, मैं! मैं तो उसका ही हूं। समर्पण करके, उसकी चीज उसी को लौटाकर, कौन सा गौरव होगा! तो उसके गुरु ने कहा, भाग जा, अब दुबारा इस तरफ मत आना। क्योंकि जो मैं तुझे दे सकता था, वह तो तुझे मिल ही गया है। वह तेरे पास है ही। मारपा ने कहा, मैं सिर्फ कोई जानने वाला पहचान ले, इसलिए आपके चरणों में आया हूं। अनजान हूं, जो मिल गया है, उसे भी पहचान नहीं पाता, क्योंकि पहले वह कभी मिला नहीं था। आपने कह दिया, मुहर लगा दी। __असल में गुरु की अंतिम जरूरत साधना के शुरू के चरणों में नहीं पड़ती, अंतिम जरूरत तो उस दिन पड़ती है, जिस दिन घटना घटती है। उस दिन कोई चाहिए, जो कह दे कि हां, हो गया। क्योंकि अपरिचित, अनजान, पहले तो कभी जाना हुआ नहीं है, उस लोक में प्रवेश हो जाता है। रिकगनीशन नहीं होता, पहचान नहीं होती कि जो हो गया है, वह क्या है। तो गुरु की जरूरत पड़ती है प्राथमिक चरणों में, वह बहुत साधारण है। अंतिम क्षण में गुरु की जरूरत बहुत असाधारण है कि वह कह दे कि हां, हो गई वह बात जिसकी तलाश थी। वह गवाही बन जाए, वह साक्षी बन जाए।
धैर्य का अर्थ है, हमारे पास न दांव पर लगाने को कुछ है, न परमात्मा को प्रत्युत्तर देने के लिए कुछ है, न सौदा करने के लिए कुछ है, हमारे पास कुछ भी नहीं है। और मांग हमारी है कि परमात्मा मिले। प्रतीक्षा तो करनी पड़ेगी। धैर्य तो रखना पड़ेगा और अनंत रखना पड़ेगा। ऐसा नहीं कि चुक जाए कि दो-चार दिन बाद फिर हम पूछने लगें। तो उसमें वैसा ही नुकसान होता है, जैसे छोटे बच्चे कभी आम
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