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________________ धैर्य कन्था - धैर्य उनकी गुदड़ी है। धैर्य को कई दिशाओं से समझना जरूरी है। शायद धैर्य से बड़ी कोई क्षमता नहीं है। और जो सत्य की खोज पर निकले हों, उनके लिए तो धैर्य के अतिरिक्त और कोई सहारा भी नहीं है। धैर्य का अर्थ है, अनंत प्रतीक्षा की क्षमता — टु वेट इनफिनिटली । आज ही मिल जाए सत्य, अभी मिल जाए सत्य, ऐसी मन की वासना हो तो कभी नहीं मिलता। और मैं प्रतीक्षा करूंगा, कभी भी मिल जाए सत्य; मैं मार्ग देखता रहूंगा, राह देखता रहूंगा, बाट देखता रहूंगा; कभी भी अनंत अनंत जन्मों में, कभी भी जब उसकी कृपा हो मिल जाए, तो अभी और यहीं भी मिल सकता है। जितना बड़ा धैर्य, उतनी ही जल्दी होती है घटना; जितना ओछा धैर्य, उतनी ही देर लग जाती है। प्रभु की तरफ पहुंचने के लिए प्यास तो गहरी चाहिए, लेकिन अधैर्य नहीं । अभीप्सा तो पूर्ण चाहिए, लेकिन जल्दबाजी नहीं। जितनी बड़ी चीज को हम खोजने निकले हों, उतना ही मार्ग देखने की तैयारी चाहिए। और कभी भी घटे घटना, जल्दी ही है, क्योंकि जो मिलता है उसे समय से नहीं तौला जा सकता । अनंत अनंत जन्मों के बाद भी प्रभु का मिलन हो, तो बहुत जल्दी हो गया। कभी भी देर नहीं है। क्योंकि जो मिलता है, अगर उस पर ध्यान दें, तो अनंत अनंत जन्मों की यात्रा भी ना - कुछ है। जो मंजिल मिलती है, उस पर पहुंचने के लिए कितना भी भटकाव ना कुछ है । तो ऋषि कहता है, धैर्य कन्था । संन्यासी के कंधे पर जो झोली टंगी होती है, उसका नाम है कन्था । ऋषि कहता है, वस्तुतः संन्यासी की जो गुदड़ी है, झोली है, वह तो धैर्य है। और धीरज की इस गुदड़ी में बड़े हीरे आ जाते हैं। लेकिन धैर्य तो हमारे भीतर जरा भी नहीं होता। और क्षुद्र के लिए तो हम प्रतीक्षा भी कर लें, विराट के लिए हम जरा भी प्रतीक्षा नहीं करना चाहते। एक व्यक्ति साधारण सी शिक्षा पाने विश्वविद्यालय की यात्रा पर निकलता है, तो कोई सोलह-सत्रह वर्ष स्नातक होने के लिए व्यय करता है । पाता कुछ भी नहीं, कचरा लेकर घर लौट आता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति ध्यान की यात्रा पर निकलता है, तो वह पहले दिन ही आकर मुझे कहता है कि एक दिन बीत गया, अभी तो कुछ नहीं हुआ। क्षुद्र के लिए हम कितनी प्रतीक्षा करने को तैयार हैं, विराट के लिए कोई प्रतीक्षा नहीं ! इससे एक ही बात पता चलती है कि शायद हमें खयाल ही नहीं है कि विराट क्या है। और शायद हमारी चाह इतनी कम है कि हम प्रतीक्षा करने को तैयार नहीं । क्षुद्र की हमारी चाह बहुत है, इसलिए हम प्रतीक्षा करने को राजी हैं। एक आदमी थोड़े से रुपए कमाने के लिए जिंदगीभर दांव पर लगा सकता है और प्रतीक्षा करता रहता है कि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों । चाह गहरी है धन को पाने की, इसलिए प्रतीक्षा कर ता है। परमात्मा के लिए वह सोचता है कि एकाध बैठक में ही उपलब्ध हो जाए। और वह बैठक भी
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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