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संन्यासी अर्थात जो जाग्रत है, आत्मरत है, आनंदमय है, परमात्म-आश्रित है
परमात्मा पर छोड़कर जीता है। परमात्मा जहां ले जाए, वहीं चला जाता है। दुख में तो दुख में, सुख में तो सुख में। महलों में तो महलों में सही और झोपड़ों में तो झोपड़ों में सही । परमात्मा जहां ले जाए, उसके हाथ में छोड़ देता है अपने को I
छोटे बच्चे को देखा कभी? बाप का हाथ पकड़कर रास्ते पर चलता होता है, तो फिर बिलकुल फिक्र नहीं करता वह — कहां जा रहा है? कहां ले जाया जा रहा है ? जब बाप के हाथ में हाथ है, तो बात खतम हो गई।
अकल्पित भिक्षाशी ।
जब परमात्मा के हाथ में छोड़ दिया सब, तो अब बात खतम हो गई। वह जो करवाए, वही ठीक के लिए राजी है, उसकी स्वीकृति है।
हंस जैसा उसका आचार है। हंसाचारः ।
हंस जैसा उसका आचरण है। हंस के आचरण की दो खूबियां हैं, वह खयाल में ले लें। तो वह संन्यासी के आचरण की खूबियां हैं।
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एक तो मैंने आपसे पीछे कहा कि हंस की यह कल्पित क्षमता है— वैज्ञानिक न भी हो – काव्य क्षमता है कि वह पानी और दूध को अलग कर लेता है । असार और सार को अलग कर लेता है। वह जो विवेक हैं संन्यासी का जागा हुआ, वह तलवार की तरह असार को और सार को काटकर अलग र देता है । जस्ट लाइक ए सोर्ड - तलवार की तरह दो टुकड़े में कर देता है ।
हंस की एक दूसरी क्षमता है, वह भी काव्य क्षमता है। वह है कि हंस मोती के अतिरिक्त और कुछ आहार नहीं लेता। मर जाए, मोती ही चुनता है। तो संन्यासी भी मर जाए, पदार्थ नहीं चुनता, परमात्मा ही चुनता है, हर हालत में। हर हालत में चुनाव उसका मोतियों का है, कंकड़-पत्थरों का नहीं है। मौत के लिए राजी हो जाएगा, लेकिन कंकड़-पत्थरों के लिए राजी नहीं होगा । श्रेष्ठ का ही उसका चुनाव है। शुभ का, सुंदर का, सत्य का ही उसका चुनाव है। यह जो हंस की क्षमता है, यही संन्यासी का आचरण है। और अंतिम, सर्व प्राणियों के भीतर रहने वाला एक आत्मा हंस है— इसको ही वे प्रतिपादित
करते हैं।
और जीवन से, शब्दों से, वाणी से, आचरण से एक ही बात वे प्रतिपादित करते हैं; सबके भीतर
सा है, वह ऐसा ही परमहंस है। सबके भीतर ऐसी ही आत्मा का आवास है। सबके भीतर ऐसी ही चेतना की धारा प्रवाहित हो रही है। जो जानते हैं, उनके भीतर भी और जो नहीं जानते हैं उनके भीतर भी । जो अपने आप आंख बंद किए खड़े हैं, उनके भीतर भी वही परमात्मा है; जो द्वार बंद किए हैं, उनके भीतर भी; जो खोलकर आंख देखते हैं, उनके भीतर भी । फर्क भीतर के परमात्मा का नहीं है, फर्क भीतर के परमात्मा से परिचित या अपरिचित होने का है।
परम ज्ञानी में और परम अज्ञानी में जो फर्क है, वह स्वभाव का नहीं है; वह फर्क केवल बोध का है, अवेयरनेस का है।
मैं हूं, खीसे में हीरे पड़े हैं और मुझे पता नहीं। आप हैं, आपके खीसे में हीरे पड़े हैं और आपको पता है। जहां तक संपदा का संबंध है, हम दोनों में कोई भी भेद नहीं है। लेकिन फिर भी मैं निर्धन रहूंगा,
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