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निर्वाण उपनिषद
भूख लगती है, निकल पड़ता है। किसी के द्वार पर खड़ा हो जाता है। कोई दे देता है ठीक, अन्यथा आगे बढ़ जाता है। जो दे देता है, ठीक। जो मिल जाता है, ले लेता है, स्वीकार कर लेता है। न कोई कल्पना है, न कोई योजना है। नहीं, पहले से खबर भी नहीं देता कि कल आपके घर भोजन करने आऊंगा। क्योंकि अगर ऐसी खबर दे, तो वह आयोजित हो जाएगी। अनायोजित जीता है। मानना यह है कि यदि अस्तित्व को जिलाना है, तो जिलाएगा। हम अपनी तरफ से कौन हैं!
मोहम्मद सांझ को जो भी उन्हें मिलता था, बंटवा देते थे। दिनभर लोग चढ़ा जाते, भेंट दे जाते, वह सांझ सब बांट देते। फिर भिखारी हो जाते। रात भिखारी ही सोते। सुबह फिर कोई दे जाता।
मोहम्मद बीमार थे, तो पत्नी ने सोचा मोहम्मद की कि रात दवा की जरूरत पड़ सकती है, वैद्य बुलाना पड़ सकता है, तो पांच दीनार, पांच रुपए, छिपाकर रख लिए।
आधी रात मोहम्मद करवट बदलने लगे। और मोहम्मद ने कहा, सुन-अपनी पत्नी को कहा—मुझे ऐसा लगता है कि इस मरते क्षण में मैं भिखारी नहीं हूं। . पत्नी तो बहुत घबरा गई। उसने कहा, आपको कैसे पता चला?
मोहम्मद ने कहा, जिंदगीभर का भिखारी, रात बिना कुछ के सोया हूं सदा। आदत बिगड़ गई। लगता है, घर में कुछ आज बचा हुआ है। तू निकाल ला, उसे बांट दे। अन्यथा मैं परमात्मा के सामने क्या जवाब दूंगा कि आखिरी दिन भरोसा खो दिया! और जिसने जिंदगीभर बचाया, वह रात को वैद्य नहीं भेज सकता था? और जिसने जिंदगीभर भोजन दिया, वह रात को दवा नहीं दे सकता था? आखिरी वक्त मुझे परेशानी में मत डाल। अब मरने के वक्त जब मैं उसके सामने जाऊंगा तो क्या मुंह लेकर जाऊंगा? वह मुझसे पूछेगा, मुझे छोड़कर पांच रुपए पर भरोसा किया? तो मैं तुझे कमजोर और पांच रुपए ज्यादा , ताकतवर मालूम पड़े? जब जरूरत न थी, तब मैं तुझे सहयोगी लगता था और जब जरूरत पड़ी, तो रुपया सहयोगी हुआ! वह निकाल ले।
पत्नी घबराकर रुपए बाहर निकाल लाई। मोहम्मद ने कहा, जा बाहर देख।
बड़ी हैरान हुई पत्नी कि सामने एक भिखारी खड़ा था। उस भिखारी ने कहा कि मैं तो सोचता था-बहुत जरूरत पड़ गई है, साथी मेरा बीमार पड़ा है और दवा की जरूरत है तो मैं सोचता था, आधी रात कौन देगा? अपने आप दरवाजा खुल गया और ये पांच रुपए तू दे रही है! मोहम्मद ने अपनी पत्नी को कहा, देख, उसके रास्ते अनूठे हैं। जिसको जरूरत थी, उसको मिल गई; और जिसने बचाया, उसके हाथ से जा रही है। _ और जैसे ही वे रुपए दे दिए गए, मोहम्मद ने चादर ओढ़ ली और अपनी पत्नी से कहा, अब मैं निश्चित मर सकता हूं। और चादर ओढ़कर तत्क्षण उनकी श्वास निकल गई। जो जानते हैं, वे कहते हैं, वह श्वास अटकी ही इसलिए रही। वे पांच रुपए बहुत भारी पड़े। वे बहुत वजनी थे।
अकल्पित भिक्षाशी।
संन्यासी कल्पना नहीं करता—भिक्षा की ही नहीं, किसी चीज की कल्पना नहीं करता। किसी चीज की योजना नहीं बनाकर चलता। यह मिल जाए, ऐसा कोई सवाल नहीं है। जो मिल जाए, उसके लिए धन्यवाद। और जो न मिले, उसके लिए भी उतना ही धन्यवाद। इतना अर्थ है कि अपने से नहीं जीता,
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