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________________ संन्यासी अर्थात जो जाग्रत है, आत्मरत है, आनंदमय है, परमात्म-आश्रित है ताश के पत्ते बिछाकर आदमी दोनों तरफ की चालें चलता है-अकेला खुद ही। आप भी चौबीस घंटे इस तरह की चालें चलते हैं। आपके भीतर निरंतर डायलाग चलता है। दो तो नहीं हैं वहां, इसलिए डायलाग होना नहीं चाहिए। दूसरा हो तो बातचीत चलनी चाहिए; आप अपने से ही बातचीत चलाते हैं। आप ही चोर बन जाते हैं, आप ही मजिस्ट्रेट भी बन जाते हैं। भीतर बड़ा नाटक चलता है। करीब-करीब आप सभी का अभिनय भीतर कर लेते हैं। आप वह भी कहते हैं, जो आप कहना चाहते हैं। आप वह भी कहते हैं, जिससे आप कहना चाहते हैं, उसकी तरफ से जवाब भी देते हैं। मल्ला नसरुद्दीन एकटेन में यात्रा कर रहा है। बीच-बीच में अकारण खिलखिलाकर हंस पड़ता है। फिर चुप हो जाता है। आसपास के लोग चौकन्ने हो गए हैं कि आदमी कुछ अजीब है। कोई कारण नहीं दिखाई पडता। खाली बैठा है. आंखें बंद किए है। फिर एकदम से खिलखिलाकर हंसता है। फिर चप हो जाता है। सम्हलकर फिर बैठ जाता है। आखिर नहीं रहा गया। जिज्ञासा बढी। एक आदमी ने हिम्मत की. जरा हिलाया और कहा. महानभाव। मामला क्या है, अचानक खिलखिला पड़ते हैं? नसरुद्दीन ने कहा, बाधा मत डालो। आई एम टेलिंग जोक्स टु माइसेल्फ। मैं अपने आपसे जरा कुछ मजाक की बातें कर रहा हूं। फिर उसने आंख बंद कर ली। फिर वह बीच-बीच में खिलखिलाकर हंसता रहा। फिर कभी-कभी ऐसा भी होता कि हंसता तो नहीं, ऐसा झिड़कता–हे। आखिर फिर उनकी जिज्ञासा बढ़ी कि बात क्या है! फिर उसने पूछा बगल के आदमी ने कि महानुभाव, हंसते थे, ठीक था; यह कोई चीज झिड़क देते हैं बीच-बीच में! तो उसने कहा, सम ओल्ड जोक। सुन चुके कई दफा, कह चुके कई दफा, वह बीच में आ जाता है। पूरे समय हमारे भीतर भी यही चल रहा है। अकेले नहीं हैं हम अकेले होकर भी। अपने को बांट लेते हैं। बड़ा मजा है, बांट-बांटकर बातचीत चलती रहती है। जरा इस भीतर की चर्चा पर खयाल करना। ऋषि की—इतना अकेला हो जाता है, इतना अकेला कि-अपने से भी बात नहीं हो सकती अब। अब तो आनंद ही चर्चा है। अब तो आनंद ही भीतर स्पंदित होता रहता है। कोई नहीं बचा। आनंद अकेला बच गया। वही नृत्य करता है, वही नाचता है। बस वही गोष्ठी है। अकल्पित भिक्षाशी। यह बहुत जरूरी बात है, समझने जैसी। अकल्पित भिक्षाशी। संन्यासी जो है, वह परमात्मा पर छोड़कर जीता है अपने को। योजना करके नहीं जीता। अनप्लैंड, अनायोजित उसका जीवन है। सुबह उठता है, भूख लगती है तो भिक्षा मांगने निकल जाता है। यह भी पता नहीं कि भिक्षा मिलेगी! यह भी पता नहीं, भिक्षा में क्या मिलेगा! यह भी पता नहीं, कौन देगा! अकल्पित, उसकी कोई कल्पना भी नहीं करता। अगर कल्पना भी करे, तो फिर वह संन्यासी की भिक्षा न रही। अगर वह सुबह से यह भी सोच ले कि आज फलां चीज खाने में मिल जाए, तो वह भिक्षा न रही फिर संन्यासी की। वह भिखारी की भिक्षा हो गई। अकल्पित...। __93 V
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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