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________________ निर्वाण उपनिषद ऋषि कहता है, एकासन गुहायाम्। वह जो अंतर की गुहा है, उस एकांत में ही प्रवेश कर जाना उनका आसन है। वे इसी आसन को खोजते हैं। ____ हम आसन जानते हैं, योगासन हम जानते हैं। कोई सिर के बल खड़ा है, कोई शीर्षासन कर रहा है, कोई सिद्धासन कर रहा है। लेकिन ऋषि कहता है, ये आसन उनके आसन नहीं हैं। ये भी बाहर की क्रियाएं हैं। उपयोगी हैं. हितकर हैं. उनसे लाभ ही होता है। लेकिन ये उनका आसन नहीं हैं जो परम गति में प्रवेश करना चाहते हैं। उनका आसन तो एक ही है, स्वयं की ही गुहा में अकेले बच रहना। वही एकासन, वही एकांत, जहां मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और ध्यान रहे, यह बहत मजे की बात है. जहां मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं है. वहां मैं भी नहीं बचता हूं। मुझे बचने के लिए दूसरे का होना जरूरी है। क्योंकि मैं दूसरे का ही छोर हैं। अगर त नब तो मैं के बचने के कोई उपाय नहीं हैं। तू को देखकर ही मैं जन्मता है। ___ इसीलिए तो आप भीड़ को खोजते हैं। हर आदमी भीड़ को खोजता है। क्योंकि भीड़ में जितना मैं मालूम पड़ता है, उतना अकेले में...अकेले में बिखर जाता है। बड़ी भीड़ आपके ऊपर नजर रखे, तो आपका मैं बहुत संगठित हो जाता है, बहुत क्रिस्टलाइज्ड, मजबूत हो जाता है। नेतृत्व का रस यही है कि लाखों लोगों की आंखें मुझ पर हैं। तो मेरा मैं मजबूत हो जाता है। कोई देखने वाला नहीं, कोई तू नहीं, तो मैं के बचने का कोई उपाय नहीं। ___मैं एक रिएक्शन है, एक प्रतिक्रिया है, तू के सामने प्रतिध्वनि है। तो जहां मेरे भीतर मैं पहुंचूं अकेले में, नितांत एकांत में, कोई भी न बचे, दूसरा रहे ही न, दुई हो ही न, द्वैत का पता ही न चले, दूसरा मिट . ही जाए, भूल ही जाए; तो ध्यान रखना, वहां मैं भी न बचूंगा। दूसरे के गिरते ही मैं भी गिर जाता है। तब सिर्फ गुह्य एकांत रह जाता है। वहां न तू होता है, न मैं होता है। वहां न कोई अपना होता है, न पराया होता है। स्वयं भी होना नहीं होता। अहंकार भी वहां नहीं है। ऐसे गुह्य एकांत को ऋषि कहता है आसन। यही है आसन लगाने जैसा। यही है जिसमें बैठे और जिसमें डूबें और जिसमें जीएं और जिसके साथ एक हो जाएं। मुक्तासन सुख गोष्ठी-मुक्त आनंद ही उनकी सुख गोष्ठी है। मुक्त आनंद ही उनकी चर्चा है, मुक्त आनंद ही उनका उपदेश है, मुक्त आनंद ही उनकी चर्या है। मुक्त आनंद तभी संभव है, जब मैं इतना अकेला हो जाऊं कि मैं भी न बचूं। अगर दूसरा मौजूद है, तो बंधन जारी रहेगा। अगर मैं भी मौजूद हूं, तो बंधन जारी रहेगा। न तू बचे, न मैं बचूं, तो वहां चेतना मुक्त हो जाती है, सब बंधन से बाहर हो जाती है। उस मुक्त आनंद को ऋषि ने कहा है, वही उनकी गोष्ठी है। वही उनका सत्संग है। उस आनंद के साथ ही उनकी चर्चा, उस आनंद के साथ बिहरना ही उनकी चर्या, उस आनंद में जीना ही उनका जीवन। इतना अकेला हो जाना कि जहां मैं भी न बचं। अपना भी साथ होता है। कभी आपने खयाल किया कि जब कोई और बात करने को नहीं मिलता है तो आप अपने से ही बात करते हैं? कभी आपने खयाल किया कि लोग ताश के पत्तों का खेल तक खेलते हैं, जिसमें दोनों तरफ से चालें वे ही चलते हैं? कोई खेलने वाला न मिले, तो क्या करिएगा! तो 792
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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