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संन्यासी अर्थात जो जाग्रत है, आत्मरत है, आनंदमय है, परमात्म-आश्रित है
एक गरीब आदमी ने बुद्ध को निमंत्रण दिया था भोजन के लिए। और बिहार में लोग कुकुरमुत्ते को इकट्ठा कर लेते हैं। वह जो बरसात में गीली जगह में, लकड़ी पर, कहीं भी पैदा हो जाता है, छतरी वर्षा की, कुकुरमुत्ता, उसे इकट्ठा कर लेते हैं और सुखा लेते हैं, तो वह वर्षभर सब्जी का काम देता है। लेकिन वह कभी- कभी पायजनस हो जाता है। ऐसी गलत जगह में हो, तो उसमें कभी-कभी जहर हो जाता है।
एक गरीब आदमी ने बुद्ध को निमंत्रण दे दिया । बहुत रोका लोगों ने। सम्राट भी उस गांव का निमंत्रण देने आया, लेकिन थोड़ी देर हो गई थी । बुद्ध ने कहा, थोड़ी देर हो गई, निमंत्रण तो मैं स्वीकार कर लिया। उसने कुकुरमुत्ते की सब्जी बनाई थी । और तो उसके पास कुछ था नहीं — रोटी थी, नमक था, कुकुरमुत्ते की सब्जी थी। वह जहरीली थी। कड़वा जहर था। लेकिन बुद्ध उसे खाए चले गए और उसकी सब्जी का गुणगान करते रहे। और उससे कहते रहे कि तूने कितने प्रेम से बनाई है ! और कितने आनंद से बनाई है! मैंने भोजन तो बहुत जगह किए, आहार बहुत सम्राटों के यहां किए, लेकिन तेरे जैसा प्रेम कहीं भी नहीं था ।
लेकिन घर आते ही, जहां ठहरे थे, निवास पर लौटते ही पता चला कि जहर फैलना शुरू हो गया है। चिकित्सक बुलाए गए, लेकिन देर हो गई थी। बुद्ध की मृत्यु उसी जहर से हुई ।
मरने के पहले बुद्ध ने आनंद को पास बुलाकर उसके कान में कहा कि आनंद, गांव में जाकर डुंडी पीट देना कि जिस व्यक्ति के घर मैंने अंतिम भोजन किया है, वह महाभाग्यवान है । क्योंकि एक भाग्यवान वह मां थी मेरी, जिसके साथ मैंने अपना पहला भोजन लिया था, और उसी मां की कीमत का यह आदमी है, जिसके साथ मैंने अंतिम भोजन लिया। तो बुद्धपुरुष जिसके यहां अंतिम भोजन लेते हैं, वह महाभाग्यवान है—गांव में डुंडी पीट देना ।
आनंद ने कहा, आप यह क्या कहते हैं ! हमारे प्राण खौल रहे हैं उस आदमी के खिलाफत से। बुद्ध ने कहा, इसीलिए कहता हूं, डुंडी पीट देना। नहीं तो मेरे मरने बाद वह गरीब मुसीबत में न पड़ जाए। लोग कहीं उस पर न टूट पड़ें कि तेरे भोजन से मृत्यु हो गई।
मृत्यु तो हो जाएगी जहर से, लेकिन भीतर ! भीतर वही करुणा, वही आनंद कि वह आदमी मुसीबत में न पड़ जाए। मरते हुए बुद्ध को फिक्र यही है कि कहीं उसके नाम साथ निंदा का स्वर न जुड़ जाए। कहीं इतिहास ऐसा न लिख दे कि उस गरीब आदमी पर ही पाप चला जाए कि उसी ने हत्या करवा दी। भीतर अंतर नहीं पड़ता। आनंद ही उनकी माला है। आनंद ही उनका अस्तित्व है।
गुह्य एकांत ही उनका आसन है— एकासन गुहायाम् ।
इसमें दो शब्द समझ लेने जैसे हैं, गुह्य और एकांत । अगर सच में ही एकांत खोजना है, तो स्वयं के भीतर खोजे बिना नहीं मिलेगा। कहीं भी चले जाएं- पहाड़ पर जाएं, कैलाश पर जाएं, जंगलों में जाएं, गुफाओं में जाएं— कहीं भी जाएं, एकांत नहीं मिलेगा। जो बाहर एकांत को खोजता है, वह एकांत को पा ही नहीं सकेगा। जाएं कहीं भी, दूसरा सदा मौजूद होगा। आदमी न होंगे, पशु-पक्षी होंगे। पशु-पक्षी न होंगे, पौधे-वृक्ष, पत्थर की चट्टानें होंगी। लेकिन दूसरा मौजूद होगा। दूसरे से बचने का बाहर कोई उपाय नहीं। एक ही जगह है, अंतर - गुहा । भीतर एक गुह्य स्थान है, जहां स्वयं के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। वहीं एकांत है।
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