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निर्वाण उपनिषद
है। पास जाकर राहगीरों ने पूछा कि यहां कोई दिखाई नहीं पड़ता सुनने वाला, आप बोल रहे हैं किससे ? लाओत्से कहता, यह अंतर्भाव है । कोई चीज भीतर जन्म गई है, उसे बाहर डाले दे रहा हूं। अभी सुनने वाला नहीं है, शायद कभी कोई सुन ले । आज मौजूद नहीं है सुनने वाला, लेकिन आज बोलने की बात पैदा हो गई है। कहीं ऐसा न हो कि कल सुनने वाला हो और कहने वाला न रहे, तो मैं बात छोड़े जा रहा हूं। हवाएं इसे सम्हाले रखेंगी, आकाश इसका स्मरण रखेगा और कभी कोई जब सुनने को तैयार होगा, तो सुन लेगा।
यह कठिन होगा समझना हमें। लेकिन यही है। अब ऐसे लोग काम से नहीं जीते, ऐसे लोग क्रीड़ा से जीते हैं। इन्हें जीवन एक बोझ नहीं, एक नृत्य है।
ऋषि कहता है, आनंद ही उनकी माला है।
आनंद ही उनकी माला । वे और कुछ नहीं पहनते, आनंद की ही माला पहने रहते हैं। उसमें आनंद हरि हैं, उसमें आनंद का ही धागा पिरोया हुआ है। वे प्रतिक्षण अहोभाव में जीते हैं – प्रतिपल । कोई ऐसी परिस्थिति नहीं है, जो उन्हें दुख में डाल सके।
हम परिस्थिति से दुखी होते हैं, परिस्थिति से सुखी होते हैं। कारण होता है हमारे दुख का और कारण होता है हमारे सुख का ।
ध्यान रहे, जब तक कारण होता है हमारे सुख का और दुख का, तब तक हमें आनंद का कोई भी पता नहीं, क्योंकि आनंद अकारण है। कारण सब बाहर होते हैं, इसलिए सुख भी बाहर होता है, दुख भी बाहर होता है। अकारण जो अवस्था है, वह भीतर होती है। इसलिए आनंद भीतर होता है।
और ध्यान रहे, जो परिस्थिति पर निर्भर होकर जीता है, वह गुलाम है। वह गुलाम होगा ही। गुलाम इसलिए होगा कि परिस्थिति कभी भी बदल सकती है और उसका सुख दुख हो सकता है। और परिस्थिति कभी भी बदल सकती है और उसका दुख सुख हो सकता है। परिस्थिति उसके हाथ में नहीं। परिस्थिति मेरे हाथ में नहीं है।
आनंद ही उनकी माला है।
संन्यास में जो गए गहरे, वे परिस्थिति पर निर्भर होकर नहीं जीते। उनके सुख-दुख का कोई कारण बाहर नहीं होता। बस, वे आनंदित होते हैं अकारण । तब फिर परिस्थिति कुछ भी नहीं कर सकती। आग लगा दें उनमें, तो भी वे उसी आनंद में होते हैं। फूल बरसा दें उनके ऊपर, तो भी वे उसी आनंद में होते हैं। भीतर उनके कोई रंच मात्र फर्क नहीं पड़ता। और जब भीतर रंच मात्र फर्क नहीं पड़ता परिस्थिति से, तभी हम बाहर से, पदार्थ से मुक्त हुए, ऐसा समझें; उसके पहले नहीं।
इसका यह मतलब नहीं है कि बुद्ध की छाती में छुरा आप मारेंगे, तो बुद्ध के प्राण न निकल जाएंगे। बिलकुल निकल जाएंगे, शायद आपसे ज्यादा जल्दी निकल जाएंगे। यह भी मतलब नहीं है कि बुद्ध के पैर में कांटा गड़ेगा, तो खून न बहेगा। जरूर बहेगा, शायद आपसे ज्यादा ही बहेगा, क्योंकि बुद्ध कांटे पर भी कठोर नहीं हो सकते। और छुरा भी छाती में जाएगा तो बुद्ध उसके साथ भी कोआपरेट करेंगे, सहयोग करेंगे। वह और भीतर चला जाएगा। बुद्ध को जहर देंगे, तो बुद्ध भी मर जाएंगे। लेकिन फिर भी भीतर कोई अंतर नहीं पड़ेगा। बुद्ध जहर से ही मरे । भूल से दिया था जहर, जानकर नहीं था ।
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