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________________ वातरोगचिकित्सा। २३१ रादिभिः नृभिः प्राणिभिः सेव्यानि । स्थविगे वृद्धः । सुखिभिः सुखार्थिभिरिति ॥ ३४७-३४९॥ दशांगतैल-तिलतैल २ प्रस्थ । काथार्थ–सहाचर (कटसरैया), बला (खरैटी), अतिबला (कंथी), नागबला (गंगेरन), गोखरू, असगन्ध, शतावर, प्रसारणी, एरण्डमूल, गिलोय; प्रत्येक १० पल (१ सेर), जल २ द्रोण, अवशिष्ट क्वाथ आधा द्रोण (८ प्रस्थ)। दूध २ प्रस्थ । दही २ प्रस्थ । गन्ने का रस २ प्रस्थ । मस्तु (दही का पानी)२ प्रस्थ । लाक्षारस २ प्रस्थ । शुक्त (आयुर्वेदोक्त विधि से प्रस्तुत सिरका)२ प्रस्थ । कल्कार्थ-जटामांसी, प्रियंगु, कुठ, मंजिष्ठा, तुरुष्क (शिलक, शिलारस), देवदारु, अगर, तगर, दारचीनी, तेजपत्र, छोटी इलायची, लौंग, रेणुका, नखी, सरलकाष्ठ, खस, गन्धबाला, लालचन्दन, चोरक, नागकेसर; मिलित ८ पल । यथाविधि पाक करें। इस साधित तैल को दशांगतैल कहते है। इस दशांगतैल में क्वाथार्थ कहे हुए दस द्रव्यों के पृथक् २ चौगुने क्वाथों से, दूध से तथा जटामांसी आदि के कल्क से यथाविथि पृथक् २ दस तैल साधित कर सकते हैं। इन दस तैलों के कल्कद्रव्य एक ही हैं। ये सब तैल वातव्याधियों को नष्ट करते हैं। वृद्ध, राजा, स्त्री, शिशु, दुर्बल, क्षतोरस्क (उरःक्षत से पीडित) तथा क्षीणोरस्क पुरुषों को स्वास्थ्य की इच्छा करते हुए इस तेल का प्रयोग करना चाहिये ॥३४७-३४९ ॥ अधुना मध्यमं प्रसारणीतैलमाहप्रसारणीशतमुदकामणे पचेत् बलाशतार्द्धमपि सहाश्वगन्धया । वरीशटीशिखिदशमूलकुण्डलीपुनर्नवामिसिमदनैः पलीनकैः।।३५०॥ नतनखशिखिरास्नारुक्प्रियङ्गयगन्धालवणबिडगुडूचीपिप्पलीरेणुकाभिः । समिशिमधुकमांसीक्षारविश्वौषधीभिः कुटजफलयुताभिर्मुष्टिमात्राभिराभिः॥ ३५१ ॥ सृतमिह सरणीजले सदुग्धं सतुषजलं बलकारि तैलमेतत् । नृपतिवरविलासिनीजनान्तः पुरसुखकामिषु सौकुमार्यकारी ॥ ३५२ ॥ इदमतिमृदुकुब्जखञ्जपङ्गप्रभृतिषु चाप्यपतानकार्दितेषु । प्रतिदिनमुपयुज्यते कृशाङ्गैर्वपुषि समीरणसङ्कचद्भिरङ्गैः ॥३५३॥ .
SR No.002391
Book TitleChikitsa Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendranath Mtra
PublisherMitra Ayurvedic Pharmacy
Publication Year
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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