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चिकित्साकलिका। चाहिये । यही तैल चक्रदत्त में इरिमेदाय तैल के नाम से कहा गया है । भेद केवल इतना ही है कि वह आधा आढक (दुगुना करने से १ आढक अर्थात् ४ प्रस्थ) तैल को सिद्ध करने का विधान करता है और यहां टीकाकार १ प्रस्थ (दुगुना करने से २ प्रस्थ) तैलसाधन करने की व्यवस्था देता है जो कि स्नेहपाक में क्वाथ से चतुर्थांश स्नेह लेना चाहिये-इस नियम के अनुसार ठीक है । चक्रदत्त में गोदुग्ध तथा लाक्षारस का पाठ नहीं और इसमें कल्क द्रव्यों में अरिमेद का पाठ नहीं है ॥ ॥३१८-३१९॥ साम्प्रतं मुखरोगेषु क्वाथद्वयमाह
रोगेषु वक्त्रगलतालुसमुत्थितेषु क्वाथः कटुत्रिकफलत्रिककट्फलानाम् । स्याद्वा सपर्पटककटफलविश्वभार्गी
भूतीकधान्यधनदारुवचाभयानाम् ।। ३२० ॥ वक्त्रादिसमुत्थितेषु रोगेषु कटुत्रिकादीनां क्वाथः स्यात् भवेत् । हित इति वाक्यशेषः। पर्पटादीनां वा क्वाथो हितो भवेदिति योगान्तरम्। विश्वं शुण्ठी। भार्गी पद्मा। भूतीकं कतृणम् । धनं मुस्तम् । दारु देवदारु । अभया हरीतकीति ॥ ३२० ॥
इति मुखरोगचिकित्सा समाप्ता॥ मुखरोग, गलरोग एवं तालुरोगों में त्रिकटु, त्रिफला तथा कट्फल; इनका क्वाथ अथवा पित्तपापड़ा, कट्फल, सोंठ, भारंगी, भूतीक (गन्धतृण), धनियां, मोथा, देवदारु, वचा तथा हरड़; इनका क्वाथ हितकर है ।। ३२० ॥
इति आयुर्वेदाचार्य श्रीजयदेव विद्यालंकार विरचितायां ... परिमलाख्यायां चिकित्साकलिकाव्याख्यायां
मुखरोगचिकित्सा समाप्ता ।
अथ शिरोरोगचिकित्सा। मुखरोगचिकित्सानन्तरं यथोद्देशं शिरोरोगचिकित्सामाह
द्रोणे जलस्य विपचेत्समयूरमांसं
वाट्यालकं सदशमूलमधूकरास्नम् ।। -अत्र वाट्यालकदशमूलमधुकरास्नाः पृथक् त्रिपलप्रमिताः ग्राह्याः । यदुक्तं वृद्धबाग्भटे-“दशमूलबलारास्नामधुकैस्त्रिपलैर्युतम्" । कल्कार्थ च मधुरगणभेषजानि